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२६६. पत्र: मणिलाल और सुशीला गांधीको

[३१ अगस्त, १९२८ के पश्चात्][१]

चि॰ मणिलाल और सुशीला,

तुम्हारे पत्र नियमित रूपसे मिलते रहते हैं। मैं हर पन्द्रहवें दिन पत्र लिखनेकी कोशिश तो करता हो हूँ किन्तु एकाध सप्ताहकी चूक भी हो जाती है।

शास्त्रीजी की गैर हाजिरीमें तुम्हें उनकी और ज्यादा याद आती होगी। उनके जैसा सरल एजेंट दूसरा मिल ही नहीं सकता। मैं नामके बारेमें सोचता ही रहता हूँ किन्तु एक भी मेरी नजर पर नहीं चढ़ता। यदि हम दोष देखने लगें तो ऐसा कौन है जिसमें दोष न हों। हिन्दू धर्ममें तो शिवजी-जैसोंमें भी दोषोंकी कल्पना की गई है किन्तु तुलसीदास कहते हैं:

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
सन्त हंस गुन गहि पय परिहरि वारि बिकार॥

तुम्हारा 'गीताजी' का पठन-पाठन तो चल ही रहा होगा। देवदास दिल्लीमें है और अब रसिक तथा नवीन उसका हाथ बँटाने गये हैं। दोनोंका काम ठीक चल रहा है।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी॰ एन॰ ४७३०) की फोटो-नकलसे।

 

२६७. पत्र: जुगलकिशोरको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१ सितम्बर, १९२८

प्रिय जुगलकिशोर[२],

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारी इच्छा पूरी कर पाना बहुत कठिन है। तुम जिस तरहका शिक्षक चाहते हो, उस तरहका शिक्षक हम अभी तक तैयार नहीं कर सके हैं। जो लोग किताबी शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं, वे कातना और बुनना सीखनेको उत्सुक नहीं है। और जिन चन्द लोगोंने इन कार्योंका प्रशिक्षण प्राप्त किया है, वे ऐसे कामों में लगे हुए हैं कि उन्हें वहाँसे अलग नहीं किया जा सकता। अगर तुम्हारी

 

  1. यह तारीख अन्तिम अनुच्छेद में नवीन और रसिकके दिल्ली जानेके आधार पर तय की गई है। देखिए पिछला शीर्षक।
  2. प्रेम महाविद्यालय, वृन्दावनके प्राचार्य।