पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/२७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

२६९. शिक्षामें अहिंसा

मैं कई हफ्तों से गुजरात विद्यापीठमें हर शनिवारको विद्यार्थियोंको एक घंटा दे रहा हूँ और इस प्रकार बहुत वर्षोंके चढ़े ऋणका कुछ ब्याज अदा कर रहा हूँ। इसमें पहले मैंने अध्यापकों और विद्यार्थियोंसे कुछ प्रश्न पूछनेको कहा था। उन प्रश्नोंका पूरा उत्तर देनेका समय निकाल सकने तक मुझसे कोई पुस्तक पढ़ानेको कहा गया और पिछले कई हफ्तोंसे 'हिन्द स्वराज' पढ़ाना जारी है। पूछे गये कई प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं और इसलिए मैंने उन्हें लिख रखा है। उनके उत्तर 'नवजीवन' में देते रहनेका इरादा है। ये प्रश्न विद्यार्थियोंके अलावा दूसरोंके लिए भी उपयोगी हैं। उनमें से एक प्रश्न इस प्रकार है:

अहिंसाकी चर्चा शुरू हुई नहीं कि कितने लोग बाघ, भेड़िया, साँप, बिच्छू, मच्छर, खटमल, जूँ, कुते आदिको मारने-न-मारने, अथवा आलू, बैंगन आदि खाने-न-खानेकी ही बात छेड़ देते हैं।
नहीं तो फिर फौज रखी जा सकती है कि नहीं, सरकारके विरुद्ध सशस्त्र बलवा किया जा सकता है या नहीं आदिके शास्त्रार्थमें उतर पड़ते हैं। यह तो कोई सोचता या पूछता ही नहीं कि अहिंसाके कारण शिक्षामें कैसी दृष्टि पैदा की जानी चाहिए। इस सम्बन्धमें विस्तारपूर्वक कुछ कहिए।

यह प्रश्न नया नहीं है। मैंने इसकी चर्चा 'नवजीवन' में इस रूपमें नहीं तो दूसरे ही रूपमें अनेक बार की है। किन्तु मैं देखता हूँ कि अब तक यह सवाल हल नहीं हुआ है। इसे हल करना मेरी शक्तिके बाहरकी बात हैं। फिर भी यदि मैं उसके हलमें यत्किंचित् योगदान कर सकूँ तो उतनेसे ही मैं अपनेको कृतार्थ मानूंगा।

समस्याका पहला भाग हमारी संकुचित दृष्टिका सूचक है। जान पड़ता है कि इस फेरमें पड़कर कि मनुष्येतर प्राणियोंको मारना चाहिए या नहीं, हम अपने सामने पड़े हुए रोजके धर्मको भूल-से जाते हैं। सर्पादिको मारनेके प्रसंग सबके सामने नहीं आते उन्हें न मारने योग्य दया या हिम्मत हमने नहीं पैदा की है। अपने में रहनेवाले क्रोधादि सर्पोंको हमने दयासे, प्रेमसे नहीं जीता है, मगर तो भी हम सर्पादिकी हिंसा की बात छेड़कर उभयभ्रष्ट होते हैं। हम क्रोधादिको तो जीतते नहीं और सर्पादिको न मारनेकी शक्ति न होने के कारण इस प्रकार आत्मवंचना करते हैं। अहिंसा-धर्मका पालन करनेकी इच्छा रखनेवालों को साँप आदिकी बात भूल जाना चाहिए। उन्हें मारना तत्काल न छूट सके तो इसका दुःख न मानते हुए, सार्वभौम प्रेम पैदा करनेकी पहली सीढ़ीके रूपमें मनुष्योंके क्रोध-द्वेषादिको सहन करके उन्हें जीतनेका प्रयत्न करें।

आलू और बैंगन जिसे न खाने हों, वह न खाये। मगर यह बात कहते हुए भी हम लज्जित हों कि उन्हें न खाना कोई महापुण्य है या अहिंसाका पालन करना है। अहिंसा खाद्याखाद्यके विषयसे परे है। संयमकी आवश्यकता तो सदा है।