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शिक्षामें अहिंसा

पदार्थोंमें जितना त्याग किया जा सके उतना सभी लोग करें। यह त्याग अच्छा है, आवश्यक है, मगर उसमें अहिंसा तो नाम-मात्रकी ही है। परपीड़ा देखकर दयासे विगलित होनेवाला, राग-द्वेषादिसे दूर, नित्य कन्द-मूलादि[१] खानेवाला आदमी भी अहिंसाका मूर्तरूप है और वन्दनीय है। तथा परपीड़ाके सम्बन्धमें उदासीन, स्वार्थके वश होकर आचरण करनेवाला, दूसरेको पीड़ा देनेवाला, राग-द्वेषादिसे भरा हुआ, कन्द-मूलादिको कदापि न खानेवाला मनुष्य तुच्छ प्राणी है; अहिंसा देवी उससे भागती ही फिरती है।

राष्ट्रमें फौजका स्थान हो सकता है या नहीं, सरकारके विरुद्ध शरीरिक बलका प्रयोग किया जा सकता है या नहीं – ये अवश्य जबरदस्त प्रश्न हैं और किसी दिन हमें इनको हल करना ही होगा। कहा जा सकता है कि कांग्रेसने अपने कामके लिए इसके एक अंगको हल किया है। तो भी यह प्रश्न जनसाधारणके लिए आवश्यक नहीं है। इसलिए शिक्षा-प्रेमी और विद्यार्थीके लिए अहिंसाकी जो दृष्टि है, वह मेरी रायमें ऊपरके दोनों प्रश्नोंसे भिन्न अथवा परे है। शिक्षामें जो दृष्टि पैदा करनी है, वह परस्परके नित्य सम्बन्धकी है। जहाँ वातावरण अहिंसारूपी प्राणवायुके जरिसे स्वच्छ और सुगंधित हो चुका है, वहाँ पर छात्र और छात्राएँ सगे भाई-बहनके समान विचरेंगे, वहाँ विद्यार्थियों और अध्यापकोंके बीच पिता-पुत्रका सम्बन्ध होगा, एक दूसरेके प्रति आदर होगा। ऐसी स्वच्छ वायु ही अहिंसाका नित्य, सतत पदार्थपाठ है। ऐसे अहिंसामय वातावरणमें पले हुए विद्यार्थी निरन्तर सबके प्रति उदार होंगे, वे सहज ही समाज-सेवाके योग्य बनेंगे। उनके लिए सामाजिक बुराइयों, दोषों आदिका प्रश्न अलग नहीं होगा। अहिंसारूपी अग्निमें वह भस्म हो गया होगा। अहिंसाके वातावरणमें पला हुआ विद्यार्थी क्या बाल-विवाह करेगा? अथवा कन्याके माँ-बापको दण्ड देगा? अथवा विवाह करनेके बाद अपनी पत्नीको दासी गिनेगा? अथवा उसे अपने विषयका भाजन मानेगा? और क्या अपनेको अहिंसक मनवाता फिरेगा? अथवा ऐसे वातावरणमें शिक्षित युवक सहधर्मी या परधर्मीके साथ लड़ाई करेगा?

अहिंसा प्रचण्ड शस्त्र है। उसमें परम पुरुषार्थ है। वह भीरुसे दूर ही रहती है। वह वीर पुरुषकी शोभा है। उसका सर्वस्व है। यह कोई शुष्क, नीरस, जड़ पदार्थ नहीं है। यह एक चेतन शक्ति है। यह आत्माका विशेष गुण है। इसीलिए इसका वर्णन परमधर्मके रूपमें किया गया है। इसलिए शिक्षामें अहिंसाकी दृष्टिका मतलब, है, शिक्षाके प्रत्येक अंगमें नित्य नये जान पड़नेवाले, उछलते, उभरते शुद्धतम प्रेमका समावेश। इस प्रेमके सामने वैरभाव टिक ही नहीं सकता। अहिंसारूपी प्रेम सूर्य है, वैरभाव घोर अन्धकार है। यदि सूर्यके टोकरेके नीचे छिपाया जा सकता हो तो शिक्षामें निहित हुई अहिंसा-दृष्टि भी छिपाई जा सकती है। ऐसी अहिंसा अगर विद्यापीठमें प्रगट हुई तो फिर वहाँ किसीको अहिंसाकी परिभाषा पूछनेकी आवश्यकता ही नहीं होगी।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, २-९-१९२८

 

  1. जैन धर्म में कहा गया है कि कन्द और मूल खानेमें हिंसा होती है। आलू-प्याज़ कन्द होनेके कारण वहाँ वर्ज्य माने जाते हैं।