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ग्राम-शिक्षाकी योजना

[की जड़] में अधिक जीव चिपके रहते होंगे। किन्तु इस तरहके सूक्ष्म भेदमें मैं अहिंसा नहीं देखता। अगर ऐसा श्रावक जिसने आलू वगैरा कभी नहीं खाये रोज चोरी करता है तो रोज आलू खानेवाले सत्यशील व्यापारीकी बनिस्बत वह अधिक बड़ी हिंसा करता है। आलू खानेवाले की हिंसा बुद्धिजनित हैं और वह उसके हृदयको विकृत नहीं करती। किन्तु चोरी करनेवाला तो अपनी आत्माका हनन करता है। संयम मात्र अच्छा है। हिंसामें डूबा हुआ मनुष्य-समाज अपने भोजनके सम्बन्धमें भी जितनी कम हिंसा करे वह स्तुत्य ही है। यह वांछनीय है कि हम वनस्पति जीवनके सम्बन्धमें भी ज्ञानपूर्वक दयाभाव पैदा करें। इन्द्रियदमनके लिए अनेक स्वादोंका त्याग भी आवश्यक है। किन्तु यह मानते हुए और अनेक पदार्थोंके त्यागके अभ्यासके बावजूद तथा श्रावकोंका मीठा और गहरा परिचय होते हुए भी मेरा मन आलू इत्यादिके त्यागमें कोई बड़ा-सा धर्म देखने से साफ इनकार करता है। इस त्यागका चरित्रके साथ कोई सम्बन्ध दिखलाई नहीं पड़ता। मुझे तो लगता है कि जब धर्म-भावना मन्द हुई होगी, तब हमारे पूर्वज खाद्याखाद्यके ऐसे सूक्ष्म झगड़ोंमें पड़े होंगे। लोकाचारको मानकर जिन्हें आलू वगैरा छोड़ने हों, वे छोड़ें, मगर उसे धर्मका आधार तो कभी न बनायें और पति-पत्नीके बीच इसे मनोमालिन्यका विषय तो कभी नहीं बनने देना चाहिए।

[गुजराती से]

नवजीवन, २-९-१९२८

 

२७१. ग्राम-शिक्षाकी योजना

श्री नगीनदासने एक लाख रुपया दान किया है। इस दानका समाचार छपनेके बादसे उनके पास इसके सम्बन्ध में अनेक पत्र आये हैं, जिनमें कुछ सुझाव भी दिये गये हैं। उन्होंने ये पत्र मेरे पास भेजे हैं और मैंने उनको काका कालेलकरके पास भेज दिया है। इस दानका उपयोग किस प्रकारसे किया जायेगा इस सम्बन्धमें गुजराती अज्ञानमें न रहें, इस उद्देश्य से काकासाहबने भी नगीनदासको पत्र लिखकर जो योजना भेजी है उस योजना और उसे समझानेके लिए लिखे गये भागको मैं इस अंकमें दे रहा हूँ। पाठक उसे अन्यत्र पढ़ेंगे। इससे यह योजना पूरी तरह समझमें आ जायेगी। इसे पढ़कर पाठकोंको मालूम होगा कि योजनाके तीन भाग हैं:

  1. विद्यार्थियोंमें से ऐसे शिक्षक या सेवक तैयार करना जो लोकसेवा कर सकें या लोगोंको शिक्षा दे सकें। यह तो स्पष्ट है कि इस सेवाको लोकसेवा बनाना है तो उसे ग्राम-सेवाके रूपमें ही किया जाना चाहिए।
  2. इन शिक्षकोंकी मार्फत गाँवोंमें पहले गश्ती फिर स्थायी शालाएँ खोलना।
  3. इनके लिए आवश्यक साहित्य तैयार करना और कराना।

 
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