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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पाठक देखेंगे कि यह योजना महत्त्वाकांक्षापूर्ण और विशाल है। यदि इसे कार्यान्वित किया जा सके तो श्री नगीनदासका दान सफल हो जायेगा।

इस प्रकारके कार्यमें उतावली नहीं की जा सकती। इस योजनाका क्षेत्र नया है। वर्तमान शिक्षा यदि पोषक हो सकती है तो वह शहरी जीवनकी ही पोषक हो सकती है। 'यदि हो सकती है तो' मैंने यह शंका विचारपूर्वक ही की है। मुझे यह आशंका है अथवा मेरा मत यह है कि वर्तमान शिक्षाके राष्ट्रीय शिक्षा न होनेके कारण शहरी जीवनके भी पोषक होनेका अनुभव नहीं हुआ है। इसके विपरीत वह तो परतन्त्रताका पोषण करनेके लिए बनाई गई थी, यह बात अनुभवसे सिद्ध हो चुकी है। चूंकि यह शिक्षा ऐसी है, इसलिए उससे प्रायः लिपिक और मुंशी-वर्गके नौकरी-पेशा लोग ही तैयार हुए हैं। इस योजनाको इस तरहके अस्थिर वातावरणमें से गुजरना है; इसलिए उसको कार्यरूप देनेमें समय लगेगा ही।

काकासाहबने इसके लिए १० वर्षका समय कूता है और वह अधिक नहीं जान पड़ता। यह सम्भव है कि इस बीच लोगोंमें ऐसा व्यापक और स्थायी उत्साह उत्पन्न हो जाये जैसा सन् १९२१ में उत्पन्न हुआ था और तब ठीक तरहके विद्यार्थी और शिक्षक आवश्यक संख्यामें आसानी से मिल जायें। उस अवस्थामें यह कार्य कम समयमें पूरा हो सकता है। इस तरहकी आशा रखने में कोई हानि नहीं है। कार्यक्रम वर्तमान परिस्थितियोंको ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए। काकासाहबने निश्चय किया है कि कोई भी काम उतावलीमें और पूरा विचार किये बिना न किया जाये। वे चाहते हैं कि काम मन्दगतिसे भले हो, किन्तु उसकी नींव मजबूत रहे। और यही शिक्षाशास्त्रीको शोभा भी देता है।

श्री नगीनदासका दान धनकी राशिको देखते हुए बड़ा दान है, इतना ही नहीं उनके पत्रसे यह जान पड़ता है कि वे जितनी भी रकम बचा सके हैं, वह पूरी-की-पूरी रकम उन्होंने शिक्षाके कामके लिए दे दी है। इससे इस दानका मूल्य बहुत बढ़ जाता है। इस बातको देखते हुए काकासाहबकी और मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है। हम दोनों जागरूक तो थे ही। हम विद्यापीठसे राष्ट्रके लिए बहुत-कुछ प्राप्त करनेकी आशा रखते हैं। किन्तु श्री नगीनदासके दानकी पृष्ठभूमि जाननेके बाद हम उसका अच्छे से अच्छा उपयोग करने के सम्बन्धमें चिन्ताशील हो गये हैं। हम इस कार्य में ईश्वरकी सहायता तो माँगते ही हैं, गुजरातियोंसे भी सहायताकी आशा रखते हैं। यदि इस विद्यापीठका कार्य योजनाके अनुसार पूरा हो तो अन्य विद्यापीठों और समस्त राष्ट्र पर इसका प्रभाव पड़ेगा। ऐसा कहनेका आशय यह बिलकुल नहीं है कि अन्य राष्ट्रीय विद्यापीठ कम काम करना चाहते हैं। किन्तु कहनेका आशय इतना अवश्य है कि जो सुविधाएँ गुजरात विद्यापीठको प्राप्त हैं वे अन्य विद्यापीठोंको प्राप्त नहीं हैं। इसलिए अन्य विद्यापीठोंकी अपेक्षा लोगोंको गुजरात विद्यापीठसे अधिक कामकी आशा रखनेका अधिकार है।

जिनकी राष्ट्रीय शिक्षामें रुचि है और जिन्हें इस योजनाका उद्देश्य प्रिय है, वे यदि गुजरात विद्यापीठके महामात्रको अहमदाबादके पते पर अपने सुझाव भेजेंगे तो वे विश्वास रखें कि उनके सुझावों पर पूरा ध्यान दिया जायेगा। मैं सबको सलाह देता