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लखनऊके बाद

उसी तरह जिस तरह हिन्दू और मुसलमान संगठनोंको अपना-अपना पृथक् अस्तित्व मिटा नहीं देना पड़ा है।

उदार दलके जिक्रसे हमें अपने आगामी कार्यका स्मरण हो आता है। अब भी बहुत-सारा राजनयिक कार्य करना बाकी है, लेकिन इससे भी बड़ा काम है उस शक्तिका संचय करना, जिससे हम अपनी बातको और लोगोंसे स्वीकार करा सकें। पण्डित जवाहरलाल नेहरूने ठीक ही कहा कि चाहे औपनिवेशिक स्वराज्यका प्रश्न हो अथवा पूर्ण स्वतन्त्रताका यदि हम राष्ट्रकी माँगको मनवाना चाहते हैं तो हमें उसके लिए समुचित शक्तिका संचय करना होगा। यदि इस शक्तिको अहिंसात्मक होना हो तो उसका रास्ता हमें बारडोलीने दिखा दिया है। अहिंसा कांग्रेसके सिद्धान्तका अभिन्न अंग है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बारडोलीसे पहले अहिंसा पृष्ठभूमिमें चली गई थी। लेकिन जिस तरह नेहरू रिपोर्टने एकमत होकर अपनी माँग पेश कर सकना सम्भव बना दिया, उसी तरह बारडोलीने अहिंसाके प्रति हमारे लुप्त होते जा रहे विश्वासको वापस ला दिया है।

इसलिए यदि हमें उक्त शक्तिका निर्माण कर सकनेका भरोसा हो, तो स्वराज्यको चाहे औपनिवेशिक स्वतन्त्रता कहा जाये या पूर्ण स्वतन्त्रता, हमें उसके लिए चिन्ता करनेकी कोई जरूरत नहीं। औपनिवेशिक स्वतन्त्रताका पूर्ण स्वतन्त्रतासे भी बड़ी चीज बन जाना मुश्किल नहीं है, बशर्ते कि हमारे पास उसको प्रभावकारी बनाने के लिए पर्याप्त शक्ति हो और यदि हममें वह शक्ति नहीं है तो स्वाधीनता भी बड़ी आसानीसे एक तमाशा-भर बनकर रह सकती है। यदि हमें असली चीज मिल जाये तो नाममें क्या धरा है? गुलाबको आप गुलाबके नामसे जानें अथवा किसी अन्य नामसे, उसकी सुगन्ध तो उतनी ही मधुर रहेगी। इसलिए अब हमें यह तय कर लेना है कि हमें हिंसात्मक शक्ति प्राप्त करनी है अथवा अहिंसात्मक और यह तय हो जानेके बाद हम सामान्य कार्यकर्त्ताओंको उस शक्तिको प्राप्त करनेमें उसी प्रकार पूरी लगनके साथ जुट जाना है जिस प्रकार हमारे राजनेताओंको संविधान बनानेमें लग जाना है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, ६-९-१९२८