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हमारी गरीबी

यह कि अबसे ४० वर्ष पहलेके मुकाबले / हम अधिक गरीब हो गये हैं। इसके बाद उन्होंने जनसंख्या पर विचार किया है और यहाँ भी वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, क्योंकि उन्होंने दिखाया है कि जहाँ जनसंख्या में वृद्धि हुई है, वहीं इस वृद्धि से उत्पन्न आवश्यकताओंकी पूर्ति करनेकी क्षमता में वृद्धि होना तो दूर, शायद कमी ही आती गई है।

प्रोफेसर वकीलने इस बढ़ती हुई गरीबीके निम्नलिखित छः कारण बताये हैं:

  1. विशाल कृषक जनसमुदायके पास, जब खेतीका काम बन्द रहता है उस अवधिमें, पर्याप्त कामका न होना।
  2. यहाँकी सामाजिक व्यवस्था, जो एक ही व्यक्तिपर बहुत बड़े परिभरण-पोषणका बोझ लाद देती है।
  3. 'साधु' कहे जानेवाले शरीरसे हृष्ट-पुष्ट भिखमंगोंकी विशाल संख्या।
  4. आलस्य पैदा करनेवाली जलवायु।
  5. लोगोंका भाग्यपर भरोसा करना और फलतः गरीबीका मुकाबला करने के संकल्पका अभाव।
  6. त्रुटिपूर्ण शिक्षा पद्धति।

ये तमाम बातें देशको गरीब बनानेमें न्यूनाधिक सहायक हैं सही, किन्तु मुझे लगता है इनमें से केवल पहला कारण ही ऐसा है जो समस्याकी जड़को छूता है। इसमें सन्देह नहीं कि इन लेखोंमें ऐसे पर्याप्त तथ्य दिये गये हैं जिनसे प्रकट होता है कि गरीबीका एक कारण विदेशी शोषण भी है। लेकिन जाहिर है कि कारण बताते समय प्रोफेसर साहबने इस स्पष्टतः बुनियादी कारणका उल्लेख करने में संकोचसे काम लिया है। यह शोषण सहस्रमुखी दानवके समान है जो प्रसंगानुकूल भिन्न-भिन्न रूपों और आकारोंमें प्रकट होता है। इस विदेशी सरकारके जहाजी बेड़े, सेना, मुद्रा, रेलवे और राजस्व नीति, सबका उपयोग जान-बूझकर ऐसे भयंकर ढंगके शोषणको प्रश्रय देना है जैसा शोषण दुनिया में पहले कभी नहीं देखा गया। जबतक यह शोषण निर्बाध रूपसे चल रहा है तबतक भारतकी गरीबी कभी दूर नहीं हो सकती। यदि यह बुराई, जिसे दादाभाई नौरोजीने हमारे देशके 'धनका भयावह बहिर्गमन' कहा है, बन्द नहीं होती तो चरखा या करोड़ों किसानोंको सुलभ कराया जानेवाला कोई भी अन्य धन्धा इस गरीबीका आंशिक उपचार ही कर पायेगा। इसलिए जो कोई भी गरीबीको दूर करनेके उपाय ढूँढ़ना चाहता हो उसे सबसे पहले हमारे देशके धनके बहकर लगातार विदेशमें जाते रहनेकी समस्याका कोई समाधान ढूंढ़ना होगा।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, ६-९-१९२८