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बालक क्या समझें?

मेरे 'गीता' पढ़ते समय बच्चे सो जायें, तो उससे उनमें समझनेकी शक्तिका अभाव सिद्ध नहीं होता। हम इससे यह अवश्य कह सकते हैं कि मैं उनमें 'गीता' पढ़नेके प्रति दिलचस्पी पैदा नहीं कर सका; या ऐसा भी हो सकता है कि बालक उस समय थके हुए हों। अंकगणित सीखते समय, मजेदार बातें सुनते-सुनते और नाटक देखते हुए भी मैंने कई बार बालकोंको सो जाते देखा है। और 'गीताजी' आदिके पाठके समय बड़ी उम्रवालों को भी ऊँघते देखा है। इसलिए ऊपरके प्रश्नपर विचार करते समय नींद और आलसकी बात हमें छोड़ देनी चाहिए।

बच्चेके शारीरिक जन्मसे पहले आत्माका अस्तित्व था; आत्मा अनादि है और उसका बचपन, जवानी और बुढ़ापा आदि स्थितियोंसे कोई वास्ता नहीं है। यह बात जिसके लिए दीपककी तरह स्पष्ट है उसके मनमें ऊपरके प्रश्न उठने ही नहीं चाहिए। देहाव्यास, जमानेके रुख और गहराईसे विचार करनेके प्रति आलस्यके कारण हम मान लेते हैं कि बच्चा सिर्फ खेलना ही जानता है या बहुत हुआ तो अक्षर रटना जानता है। और इससे थोड़ा आगे बढ़ें तो यूरोप-अमेरिकाकी नदियों वगैराके अटपटे नाम याद करना जानता है और जिनके नामोंका उच्चारण तक कठिन है, वहाँके ऐसे राजाओं, डाकुओं और खूनियोंका इतिहास समझ सकता है।

मेरा अपना अनुभव इससे उलटा है। बच्चोंकी समझमें आने लायक भाषामें आत्मा, सत्य और प्रेम क्या हैं, यह उन्हें निस्सन्देह बताया जा सकता है। जिन्हें दुनियाका कोई ज्ञान नहीं हो पाया हो, ऐसे एक नहीं अनेक बच्चोंको मृत शरीर देखकर मैंने यह पूछते सुना है, 'इस आदमीका जीव कहाँ गया?' जो बालक ऐसा सवाल अपने-आप कर सकता है, उसे आत्माका ज्ञान जरूर कराया जा सकता है। भारतके करोड़ों अनपढ़ बच्चे समझदार होते ही सत्य और असत्य, प्रेम और घृणाका भेद जानने लगते हैं। कौन-सा बच्चा अपने माता-पिताकी आँखसे झरनेवाले प्रेमके अमृत या क्रोधकी अग्निको नहीं पहचान सकता? प्रश्न पूछनेवाला विद्यार्थी अपने बचपनको ही भूल गया है। उसे मैं याद दिलाना चाहता हूँ कि पढ़ना-लिखना आने से पहले वह माता-पिताके प्रेमका अनुभव कर चुका था। यदि प्रेम, सत्य और आत्माकी अभिव्यक्तिके लिए भाषाकी जरूरत होती तो ये कभीके मिट गये होते।

ऊपरके उद्धरणोंमें बच्चोंके सामने तत्त्वज्ञानकी शुष्क और निर्जीव चर्चा करनेकी बात नहीं, बल्कि सत्य आदि शाश्वत गुणोंका उनके सामने प्रदर्शन करके यह साबित करने की बात है कि ये गुण उनमें भी हैं। सार यह है कि अक्षरज्ञान चरित्रकी पृष्ठभूमिमें ही शोभा पाता है। चरित्रके पहले अक्षर-ज्ञानको रखा जाये, तो वह उतना ही शोभा पायेगा और सफल होगा, जितनी गाड़ीके पीछे घोड़ेको रखकर उसकी नाकसे गाड़ीको ढकेलवानेकी क्रिया शोभा देगी और सफल होगी। ऐसे अनुभवसे ही डारविनका समकालीन विज्ञान-शास्त्री वॉलेस नब्बे वर्षकी उम्र में कह गया है कि मैंने पढ़ी-लिखी और सुधरी हुई मानी जानेवाली जातियोंकी मूल नीतिमें जंगली कहलानेवाले हब्शियोंकी नीतिसे बढ़कर कुछ भी नहीं देखा। यदि हम आजकलके हर तरहके बाहरी प्रलोभनोंमें न फँस चुके हों, तो हम वॉलेसकी कही हुई बातका अनुभव करेंगे और अपने विद्याभ्यासकी कल्पना और रचना अलग तरहसे करेंगे।