पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

दस सिरवाले रावणके बारेमें जो प्रश्न है, उसके उत्तरमें मैं एक प्रश्न पूछता हूँ: बालकको क्या समझाना आसान है? जैसा दस सिरवाला प्राणी किसी समय सम्भव ही नहीं है, ऐसा एक रावण हो गया है – यह चीज बच्चोंके गले उतारना आसान है, या सबके दिलमें चोरकी तरह छिपे बैठे दस सिरवाले रावणका साक्षात्कार करा देना आसान है? बच्चोंको कल्पना और बुद्धिकी शक्ति से होन मानकर हम उनके साथ घोर अन्याय करते हैं और अपनी अवगणना करते हैं। 'बच्चे समझते ही हैं' इसका यह मतलब लगाने की जरूरत नहीं कि वे समझाये बिना ही समझते है। दस सिरवाला शरीरधारी कोई मनुष्य हो सकता है, यह बात तो बहुत समझानेपर भी बच्चोंकी समझ में नहीं आयेगी और दिलमें बैठे हुए दस सिरवाले रावणकी बात वे कहते ही समझ जायेंगे।

मुझे आशा है कि अब उक्त विद्यार्थीको यह प्रश्न पूछनेकी इच्छा नहीं होगी कि तुलसीदासकी 'रामायण' और व्यासकी 'गीता' बच्चोंके आगे पढ़ने में मुझे शर्म क्यों नहीं आती। मुझे 'कर्म', 'त्याग' और 'स्थितप्रज्ञता' का तत्त्वज्ञान बालकोंको नहीं सिखाना है। मैं नहीं मानता कि मुझे भी यह ज्ञान मिल गया है; बल्कि मैं जानता हूँ कि मुझे यह ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है। शायद कर्म वगैराके बारेमें तत्वज्ञानसे भरी हुई पुस्तकें पढ़ने पर मैं उन्हें समझूँ भी नहीं; और कठिनाईसे समझ भी जाऊँ तो ऊब अवश्य जाऊँ। जब मनुष्य ऊब जाता है, तो उसे मीठी-मीठी नींद आने लगती है। किन्तु जब करोड़ों लोगोंकी खातिर कातने या यज्ञ-कर्म करनेका विचार होता है और उसके लिए भोगोंको छोड़नेका विचार आता है, तब मीठी-मीठी नींद मुझे जहर-सी लगती है और मैं सावधान हो जाता हूँ। अपने अनुभवके आधारपर मेरा यह अटल विश्वास है कि 'गीताजी' इत्यादिकी सरल भावसे बचपनमें कराई हुई पढ़ाईके अंकुर बच्चोंमें आगे चलकर जरूर फूट निकलते हैं।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ९-९-१९२८

 

२९२. लखनऊ

यदि इतिहासमें बारडोलीकी विजयका उल्लेख होगा तो लखनऊकी विजयका भी उल्लेख होगा। यदि बारडोलीने जीवन्त स्वराज्यका, रामराज्यका मार्ग बताया है तो लखनऊने कानूनी स्वराज्यका द्वार खोला है। आवश्यकता इन दोनोंकी ही थी। लखनऊके स्वराज्यके लिए विद्वान्, राजनीति-कुशल नेताओंकी आवश्यकता थी तो बारडोलीके स्वराज्यके लिए साधारण, अपढ़ जनसमाजकी आवश्यकता थी। एकमें बुद्धि प्रधान थी तो दूसरे में श्रद्धा प्रधान थी। बारडोलीकी विजयके तुरन्त पश्चात् लखनऊका अधिवेशन हुआ। ऐसा विचारपूर्वक नहीं किया गया था, इसलिए श्रद्धालु लोग इसमें ईश्वरका संकेत मानते हैं। लखनऊमें लोगोंको जो विजय मिली उसके लिए पण्डित मोतीलाल नेहरू बधाई के पात्र हैं। उनकी निष्ठा, कार्यकुशलता, उद्यम और श्रद्धाका लाभ न मिलता तो अधिवेशनको इतनी सफलता कभी न मिलती। इस सफलताका कारण सर्वोत्तम