पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/२९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६३
लखनऊ

योजना बनाने में नहीं, बल्कि ऐसी योजना बनाने में निहित था जिससे आत्मसम्मानकी तथा, सबके अधिकारोंकी रक्षा हो सके और जिस योजनापर सबका एकमत्य प्राप्त किया जा सके। भिन्न-भिन्न दलोंकी सभाएँ तो कई महीने से की जा रही थीं, किन्तु उसका प्रत्यक्ष परिणाम तो लखनऊमें ही देखने में आया। यह विजय पण्डित मोतीलाल की विजय है।

इस विजयके सन्दर्भ में डॉ॰ अन्सारीका नाम भी लिया ही जाना चाहिए। यह बात तो सभीने देखी कि डॉ॰ अन्सारीने अपने चातुर्य और धैर्यसे भिन्न-भिन्न दलोंके अनुयायियोंको एक सूत्रमें बाँधकर रखा। किन्तु वे कुछ महीने से अप्रत्यक्ष रूपसे जो काम कर रहे थे उसे तो जाननेवाले ही जानते हैं। यदि डॉ॰ अन्सारी नेहरू समितिको जब-जब जरूरत हुई तब-तब मदद न पहुँचाते तो यह सफलता मिलनी असम्भव थी। उन्होंने मुसलमानोंपर अपने प्रभावका पूरा उपयोग किया। ऐसा कोई हिन्दू नहीं है, जो उज्ज्वल देशप्रेमकी दृष्टिसे उनकी समता कर सके। इसी कारण उन्होंने सबका विश्वास प्राप्त कर लिया था।

अधिवेशनमें उदार दलके सदस्य, सर अली इमाम और डॉ॰ श्रीमती बेसेंट उपस्थित थे। इससे अधिवेशनकी प्रतिष्ठा और महत्ता बढ़ गई थी।

किन्तु जैसे बारडोलीकी विजयके पश्चात् सरदार पटेल सो नहीं सकते वैसे ही लखनऊकी विजयके पश्चात् पण्डितजी और दूसरे सदस्य निश्चिन्त होकर बैठ नहीं सकते। जबतक शेष कार्य तेजीसे पूरा नहीं किया जाता तबतक भारतभूषण पण्डित मदनमोहन मालवीयने १९३०में स्वराज्यकी स्थापना-सम्बन्धी जो शुभ भविष्यवाणी की है वह सच्ची सिद्ध नहीं हो सकती। ईश्वर सोते रहनेवालों की नहीं, बल्कि जागते रहनेवालोंकी सहायता करता है। नेहरू योजनाके पक्षमें लोकमत बनानेका कार्य तो करना ही है। किन्तु इससे भी अधिक महत्वका कार्य लोगोंमें इस योजनाको अमल में लानेका बल उत्पन्न करना है। पं॰ जवाहरलाल नेहरूने लखनऊके अधिवेशनमें इस बातकी याद दिलाई थी। उन्होंने कहा था, हम अपना लक्ष्य चाहे 'औपनिवेशिक स्वराज्य' रखें चाहे पूर्ण स्वतन्त्रता', दोनोंके लिए शक्ति तो उत्पन्न करनी ही होगी! इस शक्तिको उत्पन्न किये बिना दोनोंमें से कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती। स्वराज्य आकाशसे उतरकर नहीं आयेगा। वह ब्रिटिश सरकारसे दानके रूपमें भी नहीं मिलेगा। वह तो पुरुषार्थका ही प्रसाद हो सकता है। स्वराज्यका अर्थ ही लोगोंका पुरुषार्थ है। बकरीको स्वराज्यकी अनुभूति कैसे हो सकती है? यदि उसे सिंह आदि हिंसक पशु भयमुक्त कर भी दें तो भी उसे स्वतन्त्रताका स्वाद थोड़े ही मिलेगा? सिंह नहीं तो सिंहके चचेरे भाई उसे खा जानेके लिए तैयार रहेंगे। ऐसी ही स्थिति हमारी भी है। जब हममें स्वराज्य प्राप्त करनेकी शक्ति आ जायेगी तब हमें उससे कोई रोक नहीं सकता। लोगोंकी मुक्ति उनके अपने हाथमें ही है।

हमारे सम्मुख दो मार्ग हैं: एक हिंसाका; दूसरा अहिंसाका; एक शरीर-बलका, दूसरा आत्मबलका, एक वैरभावका, दूसरा प्रेमभावका; एक अशान्तिका, दूसरा शान्तिका और एक आसुरी, दूसरा दैवी। हमें बारडोलीने शान्तिका पदार्थपाठ सिखाया है।