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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाता है और नीच बन जाता है। जो अपनेको पतित मानता है और नम्रतासे रहता है, दुनिया उसे ऊँची जगह देती है। जहाँ मोक्ष आदर्श है, जहाँ अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, जहाँ आत्मा-आत्मामें कोई भेद नहीं है, वहाँ उच्चता और नीचताकी गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है? इसलिए राष्ट्रीय छात्रालयोंके बारेमें मेरी रायमें तो इतना ही कहा जा सकता है कि वहाँ स्वच्छताके नियम पूरी तरह पालनेकी पूरी कोशिश होगी, यानी ब्राह्मणका सच्चा धर्म उनका आदर्श रहेगा; आडम्बरसे भरा और नामका ब्राह्मण-धर्म पालना उनका आदर्श नहीं हो सकता; वह तो दोष है, इसलिए त्याज्य है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ९-९-१९२८

 

२१५. टिप्पणी
जीवन्त चक्कीकी उपेक्षा

बारडोलीमें काम करनेवाले एक स्वयंसेवक लिखते हैं:[१]

जो शिकायत इस स्वयंसेवकने की है वह किसी हदतक दूसरे बहुत से लोगोंके सम्बन्ध में भी की जा सकती है। दाँत प्रकृतिकी दी हुई बहुत बड़ी देन हैं। ये जीवन्त चक्की है; जो इनका अनादर करते हैं उनकी आयु कम हो जाती है। सूर्यके तापसे पके हुए अन्नको फिर पकानेकी आवश्यकता नहीं होती। किन्तु जबसे जीभका उपयोग स्वादके लिए होने लगा तबसे मनुष्यने पके हुए अन्नको फिर पकाना आरम्भ कर दिया और इससे उसकी आयु दीर्घ होनेकी अपेक्षा अल्प होने लगी है। हम परम्परासे चली आती हुई कुटेवोंको एकाएक भले ही न छोड़ सकें और चूल्हेका सर्वथा त्याग न कर सकें, फिर भी यदि हम उसका कमसे-कम उपयोग करने लगें तो हमारा बहुत-सा समय और धन बच सकता है। राँधा हुआ अन्न जितने परिमाणमें खाया जा सकता है, बिना राँधा हुआ उतने परिमाणमें कभी नहीं खाया जा सकता और जितना भीगा हुआ और पीसा हुआ खाया जा सकता है उतना सूखा अन्न नहीं खाया जा सकता। प्रकृतिने सुखे अन्नको भिगोनेके लिए हमारे तालुमें अमृत दिया है और उसे पीसनेके लिए दाँत दिये हैं। हम स्वादके दास बनकर प्रकृतिकी इन दोनों देनोंका तिरस्कार करते हैं और इस कारण परेशानियोंमें फँस गये हैं, इतना ही नहीं, बल्कि अपने जठर पर व्यर्थका भार डालकर अपना जीवन कम कर रहे हैं और उस कम होते जीवनको भी अनेक रोगोंका घर बना रहे हैं। इसलिए यदि हम सूर्यके तापसे पके अन्नसे सन्तोष करनेके लिए तैयार नहीं हो सकते तो हमें राँधे हुए अन्नको दाँतोंसे चबा-चबाकर खानेका अभ्यास तो रखना ही चाहिए। चावल भी

 

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखकने शिकायत को थी कि पाटीदारों में रोटीको दूधमें भिगोकर खानेका चलन है। इससे दांतोंका उचित उपयोग नहीं हो पाता।