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धार्मिक शिक्षा

चबाया जा सकता है। शाक-सब्जी भी अवश्य ही कच्ची खाई जा सकती है; डॉक्टर सब्जियोंको कच्ची खानेकी सलाह भी देते हैं। हमें कच्ची सब्जियोंसे शरीरके लिए आवश्यक जीवन-तत्त्व, जिन्हें अंग्रेजीमें 'विटामिन' कहते हैं, मिलते हैं। उन्हें पकानेसे ये उपयोगी जीवन-तत्त्व नष्ट हो जाते हैं और उनके नष्ट होने से स्वास्थ्य बिगड़ता है।

[गुजराती से]

नवजीवन, ९-९-१९२८

 

२९६. धार्मिक शिक्षा

विद्यापीठमें पूछे गये प्रश्नोंमें से जो प्रश्न रह गये थे, उनमें से एककी चर्चा में पिछले हफ्ते कर चुका हूँ।[१] दूसरा प्रश्न यह है:

विद्यापीठमें धार्मिक शिक्षाका स्थूल रूप क्या हो?

मेरे खयालसे धर्मका अर्थ सत्य और अहिंसा या सिर्फ सत्य ही करें तो भी काफी है। अहिंसा सत्यमें ही गर्भित है। अहिंसाके बिना सत्यकी झाँकी तक नहीं मिल सकती। जिस ढंगकी शिक्षासे ऐसे सत्य और अहिंसाका पालन हो, उसी ढंगकी शिक्षा धार्मिक शिक्षा हुई। और ऐसी शिक्षा देनेका सबसे बढ़िया तरीका यह है कि सभी शिक्षक सत्य और अहिंसाका पोषण करनेवाले हो। विद्यार्थियोंके लिए उनका सत्संग ही धार्मिक शिक्षा है, फिर भले ही वे गुजराती, संस्कृत, गणित या अंग्रेजी, किसी भी विषयकी कक्षा में बैठे हों।

किन्तु लोग शायद इसे धार्मिक शिक्षाका सूक्ष्म रूप माने। शिक्षाक्रममें धार्मिक शिक्षाको इसी नामसे एक विशेष स्थान दिया जा सकता है। इसके लिए हर विद्यार्थीको उसके अपने सम्प्रदायका ऐसा ज्ञान प्राप्त करनेकी दिशामें प्रोत्साहित करना चाहिए, जो दूसरे सम्प्रदायोंका विरोधी न हो। और साथ ही हर वर्ग में एक समय ऐसा भी रखा जाना चाहिए, जब आदर-भावके साथ सभी सम्प्रदायोंका उदार और निष्पक्ष, साधारण ज्ञान दिया जाये। विद्यापीठमें सब विद्यार्थी और अध्यापक मिलकर पहले ईश्वरका ध्यान करते हैं और फिर अपने-अपने वर्गमें जाते हैं। शायद आज इससे ज्यादा कुछ सम्भव नहीं है। इस तरह ईश्वरका ध्यान कर चुकनेके बाद थोड़ी देर हर धर्मके बारेमें कुछ जानकारी कराई जाये, तो मैं उसे धार्मिक शिक्षाका स्थूल रूप मानूंगा। जो दुनियाके माने हुए धर्मोके प्रति आदर पैदा करना चाहते हों, उन्हें उन धर्मोकी साधारण जानकारी प्राप्त कर लेना जरूरी है। यदि ऐसे धर्म-ग्रन्थ आदरके साथ पढ़े जायें तो उनसे पढ़नेवालों को सदाचारका ज्ञान और आध्यात्मिक आश्वासन मिल जाता है। इस तरह अलग-अलग धर्मग्रन्थोंको पढ़ते-पढ़ाते समय एक बात ध्यान में रखनी चाहिए। वह यह कि उन धर्मोके प्रसिद्ध व्यक्तियोंकी लिखी हुई पुस्तकें ही पढ़नी चाहिए और उन्हींपर विचार किया जाना चाहिए। मुझे 'भागवत' पढ़ना हो तो मैं उसका किसी ईसाई पादरी द्वारा आलोचनात्मक दृष्टिसे किया हुआ

 

  1. देखिए "शिक्षामें अहिंसा", २-९-१९२८।