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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनुवाद नहीं पढूँगा; बल्कि 'भागवत' के किसी भक्तका किया हुआ अनुवाद पढ़ूँगा। मुझे 'अनुवाद' इसलिए लिखना पड़ता है कि हम बहुत-से ग्रन्थ अनुवादके रूपमें ही पढ़ते हैं। इसी तरह 'बाइबल' पढ़नी हो, तो मैं किसी हिन्दूकी लिखी हुई टीका नहीं पढूँगा, बल्कि यह देखूँगा कि किसी संस्कारवान ईसाईने उसके बारेमें क्या लिखा है। इस तरह पढ़नेसे हमें सब धर्मोका निचोड़ मिल जाता है और उससे सम्प्रदायोंसे परली पार जो शुद्ध धर्म है, उसकी झाँकी मिल जाती है।

कोई यह आशंका न करे कि इस तरहकी पढ़ाईसे अपने धर्मके प्रति उदासीनता आ जायेगी। हमारी विचार पद्धतिमें यह कल्पना की गई है कि सभी धर्मं सच्चे हैं और सभीके लिए आदर होना चाहिए। जहाँ यह विचार है वहाँ अपने धर्मके प्रति प्रेम तो [स्वाभाविक रूपसे] होगा ही। दूसरे धर्मके प्रति प्रेम पैदा करनेके लिए प्रयत्न जरूरी होता है। जहाँ उदार वृत्ति है वहाँ दूसरे धर्मोमें जो विशेषता पाई जाये, उसे अपने धर्ममें लानेकी पूरी आजादी रहती है।

धर्मकी समूची सभ्यताके साथ तुलना की जा सकती है। जैसे हम अपनी सभ्यताकी रक्षा करते हुए भी दूसरी सभ्यतामें जो अच्छाई होती है उसे आदरके साथ ले लेते हैं, वैसे ही पराये धर्मके बारेमें भी होना चाहिए। आज जो डर फैला हुआ है, उसका कारण हमारे आसपासका वातावरण है, एक-दूसरेके लिए द्वेष या वैरभाव है, एक-दूसरे पर भरोसा नहीं है; सदा यह डर लगा रहता है कि कहीं दूसरे धर्मवाले हमें और हमारे समाजके व्यक्तियोंको भ्रष्ट कर दें तो? इसीसे दूसरे धर्मके ग्रन्थोंको हम दोषोंसे भरे हुए समझकर उनसे दूर भागते हैं। जब सभी धर्मो और उनके अनुयायियोंके प्रति आदरका भाव आ जायेगा, तब यह अस्वाभाविक भय दूर हो जायेगा।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ९-९-१९२८

 

२९७. पत्र: जयरामदास दौलतरामको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
९ सितम्बर, १९२८

प्रिय जयरामदास,

आपका पत्र मिला। आपने जिस भाषणकी प्रति भेजी है, उसे मैंने सरसरी तौर पर देख लिया है। खुद मैं तो देवनागरी और उर्दूके वैकल्पिक उपयोगको बुरा नहीं मानता। कारण, आखिरकार टिकेगी वही लिपि जिसका उपयोग करनेवालोंमें अधिक जीवन-शक्ति होगी। लेकिन तथ्य यह है कि इन बातोंको लेकर मैं अपने मनको परेशान नहीं करता। मेरा सिद्धान्त तो यह है कि नेतागण जो भी हल निकालें उसे स्वीकार कर लूँ, बशर्ते कि उसके कारण मुझे अपने बुनियादी विश्वासकी अवज्ञा न करनी पड़ती हो।