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पत्र: बालकृष्ण भावेको

तरहसे उनके प्रति जड़ भी हो सकता है। यहाँ तक कि अन्य स्त्रियोंके प्रति उसके मनमें विकार भी भरा हो सकता है। यह सर्वथा स्वाभाविक बात है कि आश्रमकी लड़कियोंके प्रति मेरे मनमें पितृभाव हो। कई वर्षके प्रयाससे इस गुणको मैं अपनेमें विकसित कर सका हूँ। और इस प्रकार अधिकतर स्त्रियोंके प्रति निर्विकार होते हुए भी मैं यह दावा नहीं कर सकता कि स्त्री-मात्रके प्रति मैं सदा ही निर्विकार रहता हूँ। यह ठीक है कि फिलहाल मेरी स्थिति ऐसी है किन्तु जबतक मैं सभी प्रकारके विकारोंसे छुटकारा नहीं पा लेता तबतक मैं भविष्यके बारेमें निश्चित नहीं हो सकता। मैंने स्वयंको न तो कभी ज्ञानी माना और न ऐसा अनुभव ही किया है। किन्तु मुझे अपने अज्ञानका प्रतिदिन अनुभव होता है। लड़कियोंके कन्धेपर हाथ रखने में मुझे कभी कोई दोष दिखाई नहीं दिया क्योंकि मैं जानता हूँ कि वे मेरे लिए बेटियोंके समान ही है। अतः यह कहना भी ठीक नहीं कि मेरे इस तरहके व्यवहारसे उन्हें कोई हानि पहुँची है। बल्कि मुझे तो लगता है कि इस घनिष्ठताके कारण मैं उनके हृदयकी गहराई तक पहुँच सका हूँ और वे पुरुषके प्रति और भी निर्विकार भावसे व्यवहार करना सीख सकी है। सामाजिक दृष्टिसे भी मैंने इसपर विचार किया था। यह ठीक है कि हिन्दू समाजमें ऐसी मान्यता है कि पिता पुत्रीका स्पर्श करते हुए भी डरे किन्तु मुझे तो यह विचार गलत जान पड़ता है; यह विचार ब्रह्मचर्यका शत्रु है। जिस ब्रह्मचर्यमें ऐसा भय बना रहे वह तो ब्रह्मचर्य ही नहीं है। ऋष्यशृंगका ब्रह्मचर्य हमारा आदर्श नहीं है। फिर भी पिछले तीन हफ्तेसे सयानी मानी जानेवाली लड़कियोंके कंधेपर हाथ रखना मैंने लगभग बन्द कर दिया है। क्योंकि जो बात तुम्हारे मनमें उठी, वही बात अन्य आश्रमवासियोंके मनमें भी उठी थी। ऐसे मामलोंमें मेरा कोई आग्रह नहीं है। कन्धेपर हाथ रखना कोई सिद्धान्तकी बात तो हो ही नहीं सकती। इसलिए जैसे ही यह बात उठी, मैंने तुरन्त सबसे सलाह-मशविरा किया और कन्धेपर हाथ रखना छोड़ दिया। इससे लड़कियोंके मनपर कुछ आघात पहुँचा है; किन्तु उन्हें बहुत-कुछ समाधान हो गया है और समय बीतने पर उनका रहा-सहा दुःख भी जाता रहेगा। मेरी तरह लड़कियोंके कन्धेपर हाथ रखकर चलनेका अनुकरण किसीको कदापि नहीं करना चाहिए। जिसमें पितृत्वकी भावना होगी, वह अवसर आनेपर पिताके अनुरूप लड़कियोंको स्पर्श किये बिना रह ही नहीं सकता और उस हालत में दुनिया उसकी निन्दा भी नहीं करेगी।

. . . के[१] बारेमें तुमने जो-कुछ लिखा है और उसकी वजहसे तुम जो दुःखी हुए हो सो मेरी समझमें नहीं आया। तुमने यह स्वीकार किया है कि उसे मेरी सलाहके अनुसार चलने और मुझे उसका पथ-प्रदर्शन करनेकी बात लिखकर तुमने गलती की है। तो फिर मेरे लिए तुमसे सलाह-मशविरा करनेकी जरूरत कहाँ रही? इसके अतिरिक्त . . . की[१] स्त्री उसके प्रति कैसा व्यवहार करती थी, इस बारेमें जो कुछ कहता है उसपर तुम कुछ विशेष प्रकाश डाल सकोगे, इस पर मैं कैसे विश्वास कर सकता हूँ? अब तुमने जो-कुछ लिखा है उसके बावजूद मैं यह मानता हूँ कि . . . को[१] मैंने जो सलाह दी है, वही ठीक है।

 

  1. १.० १.१ १.२ नाम छोड़ दिया गया है।