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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

. . . ने[१] अपनी स्त्रीके प्रति यदि सचमुच ब्रह्मचर्य-व्रत लिया होगा तो वह अब भी उसका पालन करे, यह समझाकर और इस आशा से ही मैंने उसे वहाँ भेजा है। . . .[१] अपनी स्त्रीके प्रति भ्रातृत्व और सच्ची मित्रताको सिद्ध करने गया है। इस मामलेमें मेरा तो यही दृष्टिकोण है बशर्ते कि वह उसे पूरी तरह समझा हो। भाईकी भाँति व्यवहार करनेकी बजाय यदि वह पतिका-सा आचरण करे तो यह समझ लेना कि उसका अपनी पत्नीके प्रति लिया गया ब्रह्मचर्य मिथ्या था, और वह उसे भंग करनेका अवसर ही खोज रहा था। शायद यह बात भी तुम्हारे ध्यानसे उतर नहीं गई होगी कि अन्य स्त्रियोंके प्रति भी उसका मन विकारहीन नहीं था। यदि अब भी . . .[१] अपने बारेमें तुम्हें लिखता रहता हो तो मेरी राय है कि तुम एक बार इस बारेमें मुझसे आकर सलाह-मशविरा कर लो। मैंने तो तुम्हें पहले भी तुम्हारा यही कर्त्तव्य सुझाया था। मुझे यही उचित जान पड़ता है कि तुम स्वतन्त्र रूपसे . . . का[१] पथ-प्रदर्शन करना छोड़ दो। मैंने जो कुछ लिखा है यदि वह तुम्हारी समझमें न आये तो मुझे पुनः लिखना। मैंने . . . को[१] जो सलाह दी है, उसकी अच्छाई-बुराईके बारेमें तुम्हें तनिक भी शंका नहीं होनी चाहिए। मुझे तो कोई शंका है नहीं। किन्तु यदि तुम्हें तनिक भी शंका हो या तुम्हारे मनमें कोई शंका हो तो मुझसे बार-बार पूछनेमें संकोच मत करना।

सम्मिलित भोजनालयके बारेमें मुझे तुम्हारी चेतावनी बहुत जँची है। आश्रमके बारेमें हमारी कल्पना तो यह है कि जो लोग मुलाकातके लिए आयें, वे जबतक आश्रममें रहें तबतक ब्रह्मचर्यका पालन करें। आश्रमकी नई नियमावलीमें इस नियमको और अधिक स्थायी रूप दिया गया है और इस कारण स्वाभाविक रूपसे भोजनालयमें और अधिक लोग सम्मिलित हुए हैं। यह हम कैसे कह सकते हैं कि जो ब्रह्मचर्यकी प्रतिज्ञा लेते हैं, वे भी स्वेच्छासे ब्रह्मचारी नहीं है? किन्तु तुम्हारे इस कथनको मैं मान लेता हूँ कि बहुत से लोग मेरे प्रति श्रद्धा के कारण सम्मिलित भोजनालयमें आये हैं। पिछले कुछ दिनोंसे सम्मिलित भोजनालयके कारण कुछ नये विचार हमारे मनमें उठने लगे हैं। अब सम्मिलित भोजनालयको बन्द करनेकी बात नहीं उठती बल्कि आजकल तो यह चर्चा चल रही है कि जो उसमें पूरे मनसे भाग नहीं ले पाते और सम्मिलित भोजनालयका जो उद्देश्य है, उसमें निहित अन्य बातोंको सहन नहीं कर पाते, उन्हें आश्रम में रहना चाहिए या नहीं।

अलसीके तेलका उपयोग और उसके परिणाम के बारेमें मैं तुम्हारे पत्रकी प्रतीक्षा करूंगा। अलसीका ताजा तेल तुम्हें कैसे मिलता है? रोजका-रोज़ या महीने-भरका इकट्ठा मिल जाता है? यह तेल देसी घानीका होता है या विलायती मिलका? यदि देसी घानीका होता है तो पेरनेके पहले अलसीका और क्या संस्कार किया जाता है? यदि तुम यह जानते हो और न जाननेपर जानकर लिख सको तो लिखना।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ८०१) की नकलसे।

सौजन्य: बालकृष्ण भावे

 

  1. १.० १.१ १.२ १.३ १.४ नाम छोड़ दिया गया है।