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भाषण: टॉल्स्टॉय शताब्दी समारोहके उपलक्ष्य में

 

यह स्थिति मेरे लिए दुःखदायक है; यह मुझे नहीं भाती। हिन्दुस्तान कर्मभूमि है। हिन्दुस्तानमें ऋषि-मुनियोंने अहिंसाके क्षेत्रमें बड़ीसे-बड़ी खोजें की हैं। परन्तु पूर्वजोंकी उपार्जित पूँजी पर हमारा निर्वाह नहीं हो सकता। उसमें यदि वृद्धि न की जाये तो वह समाप्त हो जाती है। इस विषयमें न्यायमूर्ति रानडेने हमें सावधान कर दिया है। वेदादि साहित्य या जैन साहित्यमें से हम चाहे जितनी बड़ी-बड़ी बातें करते रहें अथवा सिद्धान्तोंके विषयमें चाहे जितने प्रमाण देकर दुनियाको आश्चर्यचकित करते रहें, फिर भी दुनिया हमें सच्चा नहीं मान सकती। इसीलिए रानडेने हमारा धर्म यह बताया है कि हम अपनी इस पूँजीमें वृद्धि करते जायें, अन्य धर्मोके विचारकोंने जो लिखा हो, उससे उसकी तुलना करें और ऐसा करते हुए यदि कोई नई चीज मिल जाये या उसपर नया प्रकाश पड़ता हो तो हम उसकी उपेक्षा न करें। किन्तु हमने ऐसा नहीं किया। हमारे धर्माध्यक्षोंने एक पक्षका ही विचार किया है। उनके अध्ययनमें, कहने और करनेमें समानता भी नहीं है। जन-साधारणको यह अच्छा लगेगा या नहीं, जिस समाजमें वे स्वयं काम करते थे उस समाजको भला लगेगा या नहीं, इस बातका विचार न करते हुए टॉल्स्टॉयकी तरह खरी-खरी सुना देनेवाले हमारे यहाँ नहीं मिलते। हमारे इस अहिंसा-प्रधान देशकी ऐसी दयनीय दशा है। हमारी अहिंसा निंदाके ही योग्य है। खटमल, मच्छर, पिस्सू, पक्षी और पशुओंकी किसी-न-किसी तरह रक्षा करनेमें ही मानो हमारी अहिंसाकी इति हो जाती है। यदि वे प्राणी कष्टमें तड़पते हों, तो हम उनकी परवाह नहीं करते; उन्हें दुःखी करनेमें यदि हमारा हाथ हो तो भी हमें उसकी चिन्ता नहीं होती। परन्तु दुःखी प्राणीको यदि कोई प्राणमुक्त करना चाहे अथवा हमें उसमें शरीक होना पड़े तो हम उसे घोर पाप मानते हैं। मैं लिख चुका हूँ कि यह अहिंसा नहीं है। टॉल्स्टॉयका स्मरण कराते हुए मैं फिर कहता हूँ कि अहिंसाका यह अर्थ नहीं है। अहिंसाके मानी हैं प्रेमका समुद्र; अहिंसाके मानी हैं वैर-भावका सर्वथा त्याग। अहिंसामें दीनता, भीरुता नहीं होती, डर-डरकर भागना भी नहीं होता। अहिंसामें तो दृढ़ता, वीरता, अडिगता होनी चाहिए।

यह अहिंसा हिन्दुस्तानमें शिक्षित समाजमें दिखाई नहीं देती। उनके लिए टॉल्स्टॉयका जीवन प्रेरक है। उन्होंने जिस चीजपर विश्वास किया उसका पालन करनेका जबरदस्त प्रयत्न किया, और उससे कभी पीछे नहीं हटे। मैं यह नहीं मानता कि उन्हें वह हरी छड़ी[१] न मिली हो। नहीं, मिली यह तो उन्होंने स्वयं कहा है। ऐसा कहना उनको शोभा देता था। परन्तु यह मैं नहीं मानता कि उन्हें वह छड़ी मिली ही न हो, जैसा कि उनके टीकाकार लिखते हैं। यदि कोई यह कहे कि उन्होंने सब तरहसे उस अहिंसाका पालन नहीं किया जिसका उन्हें दर्शन हुआ था तो मैं यह मान सकता हूँ। किन्तु इस जगत्‌में ऐसा पुरुष कौन है कि जो जीते जी अपने सिद्धान्तों

 

  1. गांधीजी से पूर्व युवक संघके प्रमुख डॉ॰ हरिप्रसादने अपने प्रास्ताविक भाषण कहा था कि "टॉल्स्टॉपके भाईने अनेक सद्गुणोंवाली जो हरी छड़ी खोजनेको कहा था उसे वे आजीवन खोजते ही रहे।"