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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पर पूरी तरह अमल कर सका हो? मेरी मान्यता है कि देहधारीके लिए सम्पूर्ण अहिंसाका पालन असम्भव है। जबतक शरीर है तबतक कुछ-न-कुछ अहंभाव तो रहता ही है। जबतक अहंभाव है तबतक शरीरको भी धारण करना ही है। इसलिए शरीरके साथ हिंसा भी रहती ही है। टॉल्स्टॉयने स्वयं कहा है कि जो अपनेको आदर्शतक पहुँचा हुआ समझता है उसे नष्टप्राय ही समझना चाहिए। बस यहीं से उसकी अधोगति शुरू हो जाती है। ज्यों-ज्यों हम आदर्शके समीप पहुँचते हैं, आदर्श दूर भागता जाता है। जैसे-जैसे हम उसकी खोजमें अग्रसर होते हैं यह मालूम होता है कि अभी तो एक मंजिल और बाकी है। कोई भी एक छलांग में कई मंजिलें तय नहीं कर सकता। ऐसा माननेमें न हीनता है, न निराशा; नम्रता अवश्य है। इसीसे हमारे ऋषियोंने कहा है कि मोक्ष तो शून्यता है। मोक्ष चाहनेवालेको शून्यता प्राप्त करनी है। यह ईश्वर की कृपाके बिना नहीं मिल सकती। यह शून्यता जबतक शरीर है तबतक आदर्शके रूप में ही रहती है। जिस क्षण इस बातको टॉल्स्टॉयने साफ देख लिया, उसे अपने दिमाग में बैठा लिया और उसकी ओर दो डग आगे बढ़े उसी वक्त उन्हें वह हरी छड़ी मिल गई। उस छड़ीका वे वर्णन नहीं कर सके थे, सिर्फ इतना ही कह सकते थे कि वह उन्हें मिली। फिर भी अगर उन्होंने सचमुच यह कहा होता कि मिल गई तो उनका जीवन समाप्त हो जाता।

टॉल्स्टॉयके जीवनमें जो अन्तविरोध दीखता है वह टॉल्स्टॉयका कलंक या कमजोरी नहीं, किन्तु देखनेवालों की त्रुटि है। एमर्सनने कहा है कि अविरोधका भूत तो छोटे आदमियोंको दबोचता है। अगर यह दिखलाना चाहें कि हमारे जीवनमें कभी विरोध आनेवाला ही नहीं तो यों समझिए कि हम मरे हुए ही हैं। अविरोध साधनेमें अगर कलके कार्यको याद रखकर उसके साथ आजके कार्यका मेल बैठाना पड़े तो उस कृत्रिम मेलमें असत्याचरणकी सम्भावना हो शकती है। सीधा मार्ग यही है कि जिस वक्त जो सत्य प्रतीत हो उसपर आचरण करना चाहिए। यदि हमारी उत्तरोत्तर उन्नति हो रही हो और हमारे कार्योंमें दूसरोंको अन्तविरोध दीखे तो इससे हमें क्या? सच तो यह है कि यह अन्तविरोध नहीं, उन्नति है। इसी तरह टॉल्स्टॉयके जीवनमें जो अन्तविरोध दीखता है वह अन्तविरोध नहीं; हमारे मनका भ्रम है। मनुष्य अपने हृदयमें कितने प्रयत्न करता होगा, राम-रावणके युद्धमें वह कितनी विजय प्राप्त करता होगा! किन्तु उनका ज्ञान उसे स्वयं नहीं होता, देखनेवालों को तो हो ही नहीं सकता। वह जरा फिसला नहीं कि दुनियाको लगता है जैसे वह कहीं था ही नहीं; और ऐसा लगना अच्छा ही है। इस कारण दुनिया निन्दाकी पात्र नहीं है। इसीसे तो सन्तोंने कहा है कि जगत् जब हमारी निंदा करे तब हमें आनन्द मानना चाहिए और स्तुति करे तब काँप उठना चाहिए। इसके सिवा दुनिया और कुछ नहीं कर सकती; उसे तो जहाँ दोष दीखा नहीं कि उसने उसकी निंदा की। परन्तु महापुरुषके जीवनको देखने बैठें तो मेरी कही हुई बात याद रखनी चाहिए। उसने हृदय में कितने युद्ध किये होंगे और कितनी जीतें प्राप्त की होंगी, इसका गवाह तो प्रभु ही है। उसकी उस असफलता और सफलताका यही चिह्न है।