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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वह लूले-लँगड़े प्राणियोंको बचा भी ले तो उससे क्या होता है? ईश्वरके दरबारमें उसकी कीमत बहुत कम कूती जायेगी। तीसरी बात है 'ब्रेड लेबर' – यज्ञ। शरीरको कष्ट देकर मेहनत करके ही खानेका हमें अधिकार है। पारमार्थिक दृष्टि से किया हुआ काम ही यज्ञ है। मजदूरी करके भी सेवाके हेतु ही जीना है। लम्पट बनने या इस दुनियाके भोगोंका उपभोग करनेका नाम जीवित रहना नहीं है। कोई कसरतबाज नौजवान आठ घंटे कसरत करे तो यह 'ब्रेड लेबर' नहीं है। आप कसरत करें, शरीरको मजबूत बनायें तो मैं इसकी उपेक्षा नहीं करूंगा। परन्तु जो यज्ञ टॉल्स्टॉयने बताया है, यह वह यज्ञ नहीं है जो 'गीता' के तीसरे अध्याय में बताया गया है। जो ऐसा समझेगा कि हमारा जीवन यज्ञके लिए है, सेवाके लिए है, वह भोगोंको कम करता जायेगा। इस आदर्शके साधनमें ही पुरुषार्थ है। भले ही इस वस्तुको किसीने सर्वांशमें प्राप्त न किया हो और वह उससे दूर ही क्यों न रह गया हो, किन्तु फरहादने जिस तरह शीरींके लिए पत्थर फोड़े उसी तरह हम भी पत्थर तोड़ें। हमारी यह शीरीं अहिंसा है। उसमें न सिर्फ हमारा छोटा-सा स्वराज्य निहित है, बल्कि उसमें तो सभी कुछ समाया हुआ है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १६-९-१९२८

 

३०३. पत्र: छगनलाल जोशीको[१]

[१० सितम्बर, १९२८के पश्चात्]

श्रद्धानन्दजीवाली रकम 'हिन्दुस्तान टाइम्स', दिल्लीकी मार्फत स्मारकके मंत्रीको भेजना ठीक रहेगा। चैक क्रॉस कर देना।

भाई पुरुषोत्तमका पत्र मुझे नहीं मिला।

बापू

[गुजराती से]

बापुना पत्रो—७: श्री छगनलाल जोशीने

 

  1. छगनलाल जोशीके १० सितम्बरके पत्रके उत्तरमें।