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३०४. पत्र: ब्रजकृष्ण चाँदीवालाको

१२ सितम्बर, १९२८

चि॰ ब्रजकिशोर[१],

तुमारा खत मीला। जो भतीजा ऐसा उदंड बन गया है उसका बहिष्कार करनेसे ही उसकी सेवा हो सकती है। यदि आवश्यक माना जाय तो उसको मावार कुछ रूपये दीये जाय।

शरीर अच्छा बनाइये, उसके लीये मन तो चंगा होना ही चाहीये।

बापूके आशीर्वाद

जी॰ एन॰ २३५९ की फोटो-नकलसे।

 

३०५. युद्धके प्रति मेरा दृष्टिकोण

रेवरेंड बी॰ द लिग्टने 'इवॉल्यूशन' नामक एक फ्रेंच पत्रिकामें मेरे नाम एक खुला पत्र लिखा है। उसका एक अनुवाद उन्होंने मुझे भेज दिया है। इस पत्रमें बोअर युद्ध[२] और फिर १९१४के विश्व युद्धमें[३] मेरे भाग लेनेकी कड़ी आलोचना की गई है और मुझसे अहिंसाके सन्दर्भमें इस आचरणका स्पष्टीकरण करनेको कहा गया है। कुछ अन्य मित्रोंने भी यही सवाल किया है। मैंने इन स्तम्भोंमें अपने उस आचरणका स्पष्टीकरण देनेका कई बार प्रयत्न किया है।

यदि केवल अहिंसाकी तुला पर ही तोलें तो मेरे उस आचरणका कोई औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। युद्धमें हथियार चलानेवालों और सेवा-शुश्रूषाका काम करनेवालों में मैं कोई अन्तर नहीं मानता। युद्धमें तो दोनों ही हाथ बँटाते हैं और उसे प्रश्रय देते हैं। दोनों युद्ध करनेके अपराधके दोषी हैं। किन्तु इतने वर्षोतक आत्मनिरीक्षण करनेके बाद भी मैं यही महसूस करता हूँ कि तब मैं जिन परिस्थितियों में पड़ गया था, उनमें जो रास्ता मैंने बोअर युद्ध और विश्वयुद्धमें–बल्कि १९०६ में नेटालके तथाकथित जूलू विद्रोहके[४] समय भी – अपनाया उसके अलावा और कोई रास्ता ही नहीं था।

 

  1. स्पष्ट ही यहाँ "ब्रजकिशन" के स्थानपर भूलसे यह नाम लिखा गया है।
  2. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १३८-३९, १४७-५२, १५७-५८ और २३५-४१।
  3. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ५१९, ५२५-२६ और ५३९-४० तथा खण्ड १४, पृ४ ३६०-६२ और ४२२-२६ भी।
  4. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३०१, ३७२-७३, ३७६ और ३८०-८३।