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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

जीवनकी गति अनेकानेक शक्तियोंसे निर्धारित होती है। यदि मनुष्य अपना आचरण केवल किसी ऐसे सामान्य सिद्धान्तके अनुसार निर्धारित कर सके जिसे किसी विशेष क्षणमें कैसे लागू किया जाये, यह इतना स्पष्ट हो कि उसे क्षण-भरको भी सोचनेकी जरूरत न हो तब तो उसके मार्गमें कोई कठिनाई ही न रह जाये। लेकिन मुझे तो ऐसा कोई आचरण याद नहीं आ रहा है जिसे इतनी आसानी से निर्धारित किया जा सका हो।

एक प्रबल युद्ध-विरोधी व्यक्तिके नाते मौका मिलने पर भी मैंने कभी हथियार चलानेकी शिक्षा नहीं ली। शायद इसीलिए मैं मानव-जीवनके विनाशमें प्रत्यक्षतः शामिल होने से बच सका। लेकिन जबतक मैं शरीर-बलपर आधारित एक शासन प्रणालीके अधीन जी रहा था और अपनी इच्छासे उसके द्वारा सुलभ की गई अनेक सुविधाओं और अधिकारोंका लाभ उठा रहा था तबतक उस सरकारके युद्धरत हो जानेपर अपनी शक्ति-भर उसकी सहायता करनेको बाध्य था। हाँ, यदि मैं उस सरकारसे असहयोग कर रहा होता और उसके द्वारा सुलभ की गई सुविधाओंका अपनी क्षमता-भर अधिक से अधिक त्याग कर रहा होता तो बात दूसरी होती।

अब मैं एक उदाहरण देकर अपनी बात समझाता हूँ। मैं एक संस्थाका सदस्य हूँ और उस संस्थाके पास कुछ एकड़ जमीन है। उसकी फसलोंको बन्दरोंसे बराबर खतरा बना रहता है। मैं प्राणि-मात्रके जीवनको पवित्र मानता हूँ और इसलिए बन्दरोंको कोई नुकसान पहुँचाना मेरी दृष्टिमें अहिंसा-धर्मका उल्लंघन है। लेकिन फसलोंको बन्दरोंसे बचाने के लिए मैं लोगोंको उन्हें मार-पीटकर भगानेको प्रेरित करने और किस तरह यह काम किया जाये, यह बतानेमें कोई संकोच नहीं करता।[१] मैं इस बुराईसे बचना चाहूँगा, लेकिन बच तभी सकता हूँ जब या तो इस संस्थाको छोड़ दूँ या तोड़ दूँ। मैं वैसा नहीं करता, क्योंकि मैं यह आशा नहीं रखता कि मुझे कहीं कोई ऐसा समाज मिल सकेगा जहाँ खेती नहीं होती हो और इसलिए कुछ-न-कुछ जीवहत्या भी नहीं होती हो। सो मैं डरते-काँपते, विनम्र और पश्चात्तापपूर्ण मनसे बन्दरोंको मारने-पीटनेके काममें शरीक होता हूँ – मनमें यह आशा लिये हुए कि शायद किसी दिन इसका कोई हल निकल आये।

इसी प्रकार मैंने उक्त तीनों लड़ाइयोंमें भी भाग लिया। मैं जिस समाजका सदस्य हूँ उससे मैं अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ सकता था – तोड़ना पागलपन होता। और उन तीनों अवसरों पर मेरे मनमें ब्रिटिश सरकारसे असहयोग करनेका कोई खयाल नहीं आया था। आज उस सरकारके सम्बन्धमें मेरा दृष्टिकोण बिलकुल दूसरा है और इसलिए इसकी किसी लड़ाईमें मैं स्वेच्छासे शरीक नहीं हो सकता और यदि आज मुझे उसकी ओरसे शस्त्र उठाने या उसके सैनिक अभियानोंमें किसी अन्य प्रकारसे शामिल होनेको मजबूर किया जाये तो मैं जेल जाने, बल्कि फाँसीके तख्ते पर चढ़ जानेका खतरा उठानेको भी तैयार हूँ।

 

  1. देखिए "पावककी ज्वाला", ३०-९-१९२८ का उपशीर्षक 'हिंसक प्राणहरण'।