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३१५. गूँगे-बहरे और अहमदाबाद

अहमदाबादके पास रहनेपर भी मैं उसके सम्बन्धमें शायद ही कभी कुछ लिखता हूँ। इसका कारण मेरी अनिच्छा नहीं, अशक्ति है। उसके जीवनमें भाग लेनेका उत्साह कई बार उत्पन्न हुआ और ठंडा पड़ गया। मित्रोंने "कचरापट्टी" (घूरे अर्थात् नगरपालिका) में प्रवेश करके काम करनेका सुझाव दिया। मुझे उसमें काम करना रुचता भी है; किन्तु फिर उसमें प्रवेशकी मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। अहमदाबादका कोई नागरिक यह न कहे कि अब मौतके किनारे पहुँचकर मैं ऐसी हिम्मत दिखाना चाह रहा हूँ। मैंने इसका उल्लेख यह बात स्वीकार करनेके उद्देश्यसे ही किया है कि मेरे सिरपर अहमदाबादका ऋण है।

अहमदाबादमें श्री प्राणशंकर देसाई गूंगों-बहरोंका विद्यालय चला रहे हैं। इस विद्यालयसे मेरा परिचय जब मैं सन् १९१५ में अहमदाबाद आया, तभीसे है। मैं तभीसे मानता आया हूँ कि ऐसी संस्थाएँ शहरके बाहर होनी चाहिए। अब यह विद्यालय शहरके बाहर चला जायेगा। इसकी आधारशिला सेठ मंगलदासकी इच्छासे गत सप्ताह मैंने ही रखी।[१] मेरे खयालसे यह कार्य बीस वर्ष विलम्बसे हुआ। विद्यालय बीस वर्ष पहले खोला गया था। किन्तु जगह पसन्द करना भाई प्राणशंकरके हाथकी बात न थी; वह तो अहमदाबादके देवताके हाथकी बात थी। आजकलकी भाषामें कहें तो यह कार्य अहमदाबादके वातावरणपर निर्भर था। धार्मिक वृत्तिका मनुष्य जैसे यह मानता है कि शरीरमें कोई आत्मा रहती है, वैसे ही वह यह भी मानता है कि नगररूपी शरीरकी एक आत्मा होती है और उसे वह नगर-देवताके रूपमें जानता है। अहमदाबादका देवता कंजूस है, इसीलिए उसने अपने शरीररूपी नगरमें रहनेवाले जीवोंको बहुत संकुचित स्थान और गन्दगीमें रख छोड़ा है और उसकी हवा खराब कर रखी है। इस प्रकार इन प्राणियोंको दुःखी करके स्वयं उसका कितना दम घुटता होगा, इसे तो स्वयं उसके अतिरिक्त दूसरा कौन जान सकता है? डॉ॰ हरिप्रसादने अपने आरोग्य-शास्त्र नामके निबन्धमें लिखा है कि भारतके नगरोंमें मृत्यु-संख्या अर्थात् गन्दगीमें प्रथम स्थान अहमदाबादका है।

यदि धनी और विद्वान् लोग चाहें तो अहमदाबादका रूप बदला जा सकता है। सबसे बड़ी जैन पेढ़ी अहमदाबादमें ही है। कहा जाता है कि संसारमें धार्मिक संस्थाके रूप में प्रसिद्ध किसी भी अन्य पेढ़ीके पास उतना धन नहीं है जितना आनन्दजी कल्याणजीकी पेढ़ीके पास है। यदि अहमदाबाद गुजरातकी राजधानी है तो वह जैनोंका भी मुख्य नगर है। जैन तो जीव दयाके इजारेदार हैं। किन्तु, सच्ची जीव दयाको अभी उन्हें पहचानना है। बड़े-बड़े पशुओंको तंग बस्तियोंमें जैसे-तैसे पालना संकीर्ण और तुच्छतम जीव-दया है। जीव-दयाका विस्तार तो सागरके समान होता है और जैसे सागरमें से सतत् प्राणप्रद वायुकी सुगन्ध फैलती रहती है वैसे ही जीव दयाकी

 

  1. देखिए "भाषण: गूँगों और बहरोंकी शालामें," ७-९-१९२८।