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खादी प्रचार कोष

प्राणवायुकी सुगन्ध भी सतत् फैलती रहती है, तथा मनुष्यों और सभी प्राणियोंको सुख-शान्ति और आरोग्य देती है। किन्तु आरोग्य-दानकी बात केवल जैनदर्शन तक ही सीमित नहीं है। वैष्णव भी उसका कुछ कम दावा नहीं करते, इस्लाममें भी उसका महत्त्व कम नहीं है। अहमदाबादमें इन सभी धर्मोके लोग रहते हैं और ये तीनों अहमदाबादके इस लांछनके समान भागीदार माने जायेंगे।

अहमदाबादके पास इतना धन है कि वह रमणीक कही जानेवाली गुजरातकी इस राजधानीको भारतके नगरोंमें सबसे अधिक रमणीक और तन-मनसे सर्वाधिक स्वस्थ बना सकता है।

प्रकृतिने अहमदाबादको ऐसी जलवायु दी है कि वह आरोग्यस्थल बन सकता है। किन्तु मनुष्य उन दोनोंको दूषित कर रहे हैं। अहमदाबादके अस्पताल, मन्दिर, विद्यालय और अनाथालय शहरके बाहर बनाये जाने चाहिए। उसके मुहल्लोंमें आबादीकी सघनता कम होनी चाहिए। नगरके बीचमें छोटे-छोटे मैदान होने चाहिए। आज तो जहाँ देखें वहीं दुर्गन्ध उठती दिखाई देती है। इसके बजाय चारों ओर सुगन्ध फैली हुई होनी चाहिए।

यह कार्य शहरके लोगोंकी शक्तिके बाहर नहीं है। इसमें करोड़ों रुपये खर्च करनेकी भी जरूरत नहीं है। फिर दुनिया भरमें सभी शहरोंका यह निरपवाद अनुभव है कि इस कामपर जो धन खर्च होता है उसका प्रति-फल दूना मिलता है। अवश्य ही यह धन ज्ञानपूर्वक, उदारभाव और शुद्ध वृत्तिसे खर्च किया जाना चाहिए। जो बात मनुष्यके सम्बन्धमें लागू होती है वही नगरोंके सम्बन्धमें भी ठीक है। अपनी मुक्ति अपने ही हाथमें है। केवल नगरके लोगोंकी वृत्ति या लोकमत बदलनेकी जरूरत है। उसको बदलनेके लिए नेताओंको त्याग करना ही होगा। एक चेम्बरलेनने बर्मिंघमका रूप बदल दिया। अहमदाबादको भी चेम्बरलेन-जैसे व्यक्तिकी जरूरत है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जैसे फ्रांसकी क्रान्तिमें नायकके बिना लोग लड़े थे, वैसे ही कोई चेम्बरलेन न निकले तो युवकसंघ-जैसी कोई संस्था त्याग करे और अहमदाबादको दुर्गन्धयुक्त वातावरणसे निकालकर सुगन्धमय बना दे?

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १६-९-१९२८

 

३१६. खादी प्रचार कोष

श्री गोपाललाल मथुरावाले ने खादी प्रचार कोषमें एक सौ रुपये भेजे हैं और साथ ही यह लिखा है:

आप इस रकमको खादी-प्रचारके कार्य अथवा किसी अन्य कार्यमें लगा सकते हैं। इसे किसी भी अवस्थामें वापस भेजनेकी आवश्यकता नहीं है।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, १६-९-१९२८