पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/३२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९३
टिप्पणियाँ

मुलतवी करके एकाएक इसी अंकमें इस लेखको छापनेका आग्रह क्यों करते? फिर, मेरे लिए तो उन्होंने 'न' कहनेका अवकाश भी नहीं रखा। क्योंकि संस्कृत श्लोकोंका गुजराती भाषान्तर सीधे प्रेसको भेजनेका निश्चय सूचित करके उन्होंने मुझे विवश कर दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि काकासाहबने मान लिया है कि गुजरातकी शिक्षाके विषय में मैं भी उन्हींके समान व्याकुल हूँ। उन्हें ऐसा करनेका पूरा अधिकार था। इस दिशामें श्री नगीनदास और श्री पूंजाभाईके बलिदानने हम दोनोंको विकल कर दिया है। मेरे लिए विद्यापीठ साबरमतीके पश्चिमी किनारे पर खड़ी इमारत या उसमें अक्षर ज्ञान और उद्योग-ज्ञान पानेवाले मुट्ठी-भर छात्र और छात्राएँ ही नहीं है। विद्यापीठका काम गाँवोंके वृद्ध स्त्री-पुरुषों, बालक-बालिकाओं में भी सच्ची शिक्षाका प्रचार करना है। सच्ची शिक्षाका अर्थ है स्वत्वका ज्ञान प्राप्त करना और तद्नुरूप आचरण करना। काकासाहबकी यही अभिलाषा है कि जिन्हें अक्षर ज्ञान नहीं है उन्हें भी ऐसी शिक्षा देनेका प्रबन्ध किया जाये। इसीलिए यह लेख 'नवजीवन' के इस अंकमें प्रकाशित किया जा रहा है, यद्यपि यह बहुत पहले ही लिखा जा चुका था। भाषाप्रेमी, देशप्रेमी इसे पढ़ें और समझें, दूसरोंको पढ़वायें और समझायें। इसे प्रकाशित करनेका यही उद्देश्य है। सभी पाठकोंके लिए इस लेखको समझ पाना कठिन है। लेखका शीर्षक भी चौंका देनेवाला है। गुजरातमें अधिकतर लोग यमुना नदीको कालिन्दीके नामसे जानते हैं, जमनाको यमुनाके नामसे जाननेवाले लोग भी गाँवोंमें कम ही मिलेंगे। किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा और लोगोंमें देशप्रेम बढ़ता जायेगा, वे गंगा-यमुनाका दर्शन करनेके लिए उत्सुक होंगे। सब तो ऐसा कर नहीं सकते। उन्हें ऐसे लेखोंसे ही सन्तोष होगा। उनके लिए तो घर बैठे-बैठे गंगा-यमुना आ जायेगी, और उन्हें वहाँ जानेके बराबर आनन्द मिलेगा। काकासाहबकी गहरी भावनाको समझकर यदि पाठक पवित्रताका स्पर्श कर पायें तो वे गंगा-स्नानके पुण्यके भागी होंगे, जब कि गंगा-तट पर रहनेवाला व्यक्ति यदि पाखण्डी हो तो वह रोज उसके पवित्र जलको दूषित करनेका प्रयत्न करता हुआ पुण्यके बजाय पापकी गठरी ही सिरपर लादेगा।

उपर्युक्त दृष्टिसे मेरी सलाह है कि पाठक एक नक्शा पासमें रखकर इस लेखको पढ़ें। इस तरहके लेख पढ़ना आसान हो जाये, इसके लिए विद्यापीठ एक ऐसा कोष[१] तैयार कर रहा है जैसा गुजराती भाषामें पहले कभी नहीं था। जबतक यह कोष पाठकों तक नहीं पहुँचता तबतक वे जैसे-तैसे शब्दोंका अर्थ सोचकर अपना ही शब्दकोष बना लें।

[गुजराती से]

नवजीवन, १६-९-१९२८

 

  1. सार्थ जोडणी कोश।