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जेलोंमें व्यवहार

 

श्रीयुत सी॰ एल॰ चिनायने भी अपने बयान में यही किस्सा दुहराया है:

जेलका खाना मुझे अनुकूल नहीं पड़ता था और मेरे पेटमें दर्द रहने लगा। अन्तमें में संग्रहणीका शिकार हो गया। कभी-कभी तो दिनमें ३०-३५ दस्त आ जाते थे। जब कभी में सब्जियाँ खाता था, बराबर संग्रहणी हो जाती थी। फलतः मेरा वजन बहुत तेजीसे घटने लगा। जब मैंने डॉक्टरको अपना हाल बताया तो उसने कहा कि मुझे सब्जियाँ छोड़ देनी चाहिए, तभी मैं अच्छा रह सकूंगा। मैंने वैसा ही किया और तबसे लेकर अन्ततक सिर्फ रोटी और पानी पर रहा। मैंने अधीक्षकसे इसकी शिकायत इसलिए नहीं की कि वह भोजनके सम्बन्धमें कैदियोंकी शिकायतों पर कोई ध्यान ही नहीं देता था। बल्कि मैंने तो यहाँतक सुना कि कई बार ऐसी शिकायतें करनेवाले कैदियोंको सजा भी दी गई है। इसलिए कोई भी इस मामलेको अधिकारियोंके सामने रखनेका साहस नहीं करता था।

यहाँतक कि फौलादी शरीवाले श्रीयुत रविशंकर व्यासको भी अपने बयानमें यह कहना पड़ा:

सब्जी सूखी, कड़ी और चीमड़ पत्तियोंको लौकीमें मिलाकर तैयार की जाती थी। उसे खानेका मतलब पेट-दर्दको बुलावा देना था।

श्रीयुत चिनायको शारीरिक श्रमके तौरपर ऐसा कड़ा काम दिया गया जो उनकी शक्तिसे बाहर था। इससे उन्हें अक्सर चककर आ जाता था, लेकिन बीस दिनोंतक उन्हें जरूरी दवा भी नहीं दी गई। कारावासके दौरान उनका वजन २० पौंड घट गया। इसी तरह गोविन्द गोसाईं, जिनका स्वास्थ्य सजा पानेसे पहलेसे ही खराब था, जेलसे निकलने तक इतने कमजोर हो गये थे कि वे अपने पैरोंपर ठीकसे खड़े भी नहीं रह पाते थे।

मेरे पास जो बयान हैं, उनके बहुत संक्षिप्त अंश ही मैंने यहाँ दिये हैं। यदि अधिकारीगण इस विषयमें सचमुच कुछ करना चाहते हों तो मैं उन्हें सारे बयान तथा अन्य जिन सबूतोंकी जरूरत हो वह सब भेजनेको तैयार हूँ। मेरा निश्चित विश्वास है कि सूचना-निदेशकने जिस तरहसे आरोपोंका खण्डन किया है उस तरहके खण्डनका जनतापर कोई असर नहीं पड़ता, और यह तो है ही कि उससे न कैदियोंकी अवस्थामें कोई सुधार होनेवाला है, और न जेलोंमें मानवीयताकी जो कमी है वही पूरी होनेवाली है। मानवीयताकी पहली शर्त यह है कि मनुष्यमें कुछ विनय हो, अपने आचरणके सही होनेके बारेमें मनमें कहीं थोड़ा संकोच शंका हो और दूसरोंकी बात सुनने-समझनेकी किंचित् तत्परता हो। मगर निदेशक महोदयने आरोपोंका जो खण्डन किया है, उसमें इन तीनोंका अभाव दीखता है।

[अंग्रेजीसे]

यंग इंडिया, २०-९-१९२८