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३२४. मैंने विस्मृत चरखेको केसे खोजा

एक भाई अखिल भारतीय चरखा संघकी संस्थाओंका अध्ययन कर रहे हैं। कराइकुडि (तमिलनाड) स्थित एक केन्द्रका अध्ययन करनेके बाद वे लिखते हैं:

यह (उत्तुकुलि) हाथ-कताई और बुनाईका बहुत बड़ा केन्द्र है। यहाँका काम मैंने आधा-सा सीख लिया है। लगभग एक हजार कतैये हैं। मैं गाँवोंमें खुद उनके झोंपड़ोंमें जा-जाकर मिला हूँ। जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, मैं अधिकाधिक विस्मयके साथ सोचता हूँ कि आपने चरखेको कैसे खोजा। मेरा मन आपसे एक अनुरोध करनेको होता है। क्या आप 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें यह बतानेकी कृपा नहीं करेंगे कि ठीक-ठीक कब और कैसे आपने विस्मृत चरखेको फिरसे खोजा? देखने में इतना छोटा होते हुए भी वास्तवमें यह कितना विशाल है! यह मुझे वर्षाकी बूंदोंकी याद दिलाता है — हर बूँद अपने-आपमें कितनी छोटी होती है, मगर एक साथ मिलकर यही बूंदें विशाल सागर बन जाती हैं। इससे ज्यादा गलत भला क्या हो सकता है कि कोई कहे, आपने भारत से चरखा चलाने को कहा, भारतने आपकी प्रेरणापर चरखा चलाना शुरू किया। सचाई यह है कि करोड़ों ग्रामवासियोंने आपको इसकी ओर झुकने, अपने काते सूतको बेचनेवाला एजेंट बननेको बाध्य किया है। मैं बड़ी-बूढ़ी औरतों और लड़कियोंके हजूमको रोज अपना-अपना सूत लेकर आते देखता हूँ। वे अपने बहुमूल्य सूतको कलेजेसे लगाये, मुस्कराती हुई आती हैं। खादी हमारे राष्ट्रीय जीवनके ठीक उन्हीं मर्मस्थलोंका स्पर्श करके उनमें पुनः प्राण-प्रतिष्ठा कर रही है जिन मर्मस्थलोंको इस अत्यन्त निष्ठुरतापूर्ण शोषणके स्पर्शने प्रायः निष्प्राण कर दिया है। आपने कभी कहा था कि दुनिया एक-न-एक दिन यह स्वीकार करेगी कि खादी-कार्य मेरा सबसे बड़ा, सबसे महान् कार्य था। इस कथनमें छिपे सत्यकी जितनी प्रतीति मुझे आज हो रही है, उतनी पहले कभी नहीं हुई थी।

इन भाईका यह कथन बिलकुल सही है कि वास्तव में देशके करोड़ों मेहनतकश और क्षुधापीड़ित जनोंने ही मुझे खादीकी ओर झुकनेको बाध्य किया। इस विस्मृत चरखेका खयाल पहली बार मेरे मनमें १९०९में[१] लन्दनमें आया। मैं दक्षिण आफ्रिकासे एक शिष्टमण्डल लेकर वहाँ गया हुआ था। तभी वहाँ मैं बहुत ही लगनवाले कई भारतीय विद्यार्थियों और अन्य भारतीय भाइयोंके सम्पर्कमें आया। हमारे बीच भारतकी दशाके बारेमें कई बार लम्बी चर्चाएँ हुईं। और इसी दौरान मेरे मनमें यह बात

 

  1. साधन-सूत्रमें "१९०८" है।