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मैंने विस्मृत चरखेको कैसे खोजा

एकाएक कौंध-सी गई कि हम चरखेके बिना स्वराज्य नहीं प्राप्त कर सकते। तत्क्षण मैंने यह समझ लिया कि सभीको कातना है। लेकिन तब मुझे चरखे और करघेका भेद मालूम नहीं था। 'हिन्द स्वराज्य' में[१] मैंने 'चरखा' के अर्थमें 'करघा शब्दका प्रयोग किया है। उस पुस्तिकाके अन्तिम परिच्छेदमें मैंने इस प्रकार कहा है:

माँगने से कुछ नहीं मिलता। लेनेसे ही कुछ लिया जा सकेगा। लेनेके लिए शक्ति चाहिए। वह बल तो उसीमें होगा:
२. जो यदि वकील हो तो अपनी वकालत छोड़ दे और अपने घरमें चरखा चलाकर कपड़ा बुने।
८. जो डॉक्टर होनेपर भी खुद चरखा चलाये . . . ।
१०. जो धनवान होकर अपना पैसा चरखे स्थापित करनेमें खर्च करे और स्वयं केवल स्वदेशी माल पहनकर और बरतकर दूसरोंको प्रोत्साहित करे।

ये शब्द आज भी उतने ही सार्थक हैं जितने कि १९०९ में जब यह पुस्तिका लिखी गई उस समय थे। आज वकील, डॉक्टर और दूसरे लोग यज्ञके भावसे न केवल खुद चरखा चला रहे हैं, बल्कि इस आन्दोलनका संगठन भी कर रहे हैं। मगर अफसोस! करोड़ों लोगोंको असहायावस्था-जनित आलस्यसे जगानेके लिए आज भी उनकी संख्या बहुत कम है। अधिकांश लोग तो अब भी किनारे खड़े होकर तमाशा देख रहे हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी आँखोंके सामने आज जो अनर्थ हो रहा है वे उससे किसी बड़े अनर्थकी प्रतीक्षा कर रहे हों। ऐसा लगता है मानो वे उस दिनकी राह देख रहे हों जब करोड़ों लोगोंका सामूहिक विनाश उन्हें एक धक्का देकर क्रियाशील होनेको प्रेरित करेगा। खैर, जो भी हो, इतना तो निश्चित है कि सच्चा और जीवन्त स्वराज्य प्राप्त हुआ तभी माना जायेगा जब उसकी दीप्ति का अनुभव करोड़ों क्षुधा-पीड़ित मानव करेंगे। और जबतक उनके और अपनी सुख-सुविधाके लिए वस्तुतः उनका खून चूसनेवाले और दुनियाके सामने अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओंको प्रस्तुत कर सकनेकी क्षमता रखनेवाले हम लोगोंके बीच एक जीवन्त सम्बन्ध कायम नहीं हो पायेगा तबतक वे स्वराज्यकी दीप्तिका अनुभव नहीं कर सकेंगे।

मगर अब फिर चरखेकी बात लें। यद्यपि मनकी आँखोंसे इसे मैंने १९०९ में ही ढूँढ़ लिया था, किन्तु इसका काम तीन वर्षोंके कठिन और धैर्यपूर्ण प्रयत्नोंके बाद १९१८में शुरू हो पाया। प्रथम खादी-व्रत (जिसे बम्बईकी फैशनपरस्त बहनोंकी सुविधाके लिए काफी नरम बना दिया गया था) १९१९ में[२] लिया गया। चरखेको कांग्रेसके कार्यक्रममें १९२१ में[३] स्थान मिला। उसके बादसे तो इस आन्दोलनका इतिहास एक खुली पुस्तक है, जो आज भी दो हजारसे कुछ अधिक खादी-कार्यकर्त्ताओं

 

  1. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ६-६५।
  2. देखिए खण्ड १५, पृष्ठ ३१४-१६।
  3. देखिए खण्ड २२, पृष्ठ ४०२।