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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं किसी दिन भी नहीं कर सकूँगा और अन्तमें धर्म-हीन हो आऊँगा। इन्हीं कारणों प्रीतमने गाया है कि:

प्रेमपंथ पावकनी ज्वाला भाली पाछा भागे जोने।[१]

अहिंसा-धर्मका पंथ प्रेमका पंथ है। इस पंथ पर आदमीको अकसर अकेले ही चलना पड़ता है।

मैंने ये प्रश्न अपने मनमें विचारे और मित्रोंसे इनकी चर्चा की। सवाल उठा कि जो-कुछ आप बछड़ेके बारेमें करना चाहते हैं क्या वैसा ही अपने बारेमें भी करना पसन्द करेंगे? किसी अन्य मनुष्यके सम्बन्धमें भी वही करनेको तैयार हो सकेंगे? मुझे लगा कि इन सभी मामलोंमें एक ही न्याय लागू होता है। मुझे यह स्पष्ट जान पड़ा कि यहाँ अगर 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' का नियम लागू न होता हो, तो बछड़ेके प्राण नहीं लिये जा सकते। ऐसे दृष्टान्तोंकी कल्पना की जा सकती है जब कि मारनेमें ही अहिंसा हो और न मारनेमें हिंसा। मान लें कि मेरी लड़की स्वयं कोई राय देने लायक न हो, उसपर कोई आक्रमण करने आ जाये और मेरे पास उसे रोकनेका कोई दूसरा मार्ग ही न हो; ऐसी स्थिति में यदि मैं अपनी लड़कीके प्राण और आक्रमणकारीकी तलवारके घाट उतर जाऊँ तो इसमें मैं शुद्ध अहिंसा देखता हूँ। बीमारीसे दुःखित प्रियजनोंको हम नहीं मारते; सो इसलिए कि उनकी सेवा करने के साधन हमारे पास होते हैं और वे अपनी राय रखते हैं। किन्तु सेवा शक्य न हो, जीनेकी आशा ही न हो, रोगी बेहोश हो और महादुःख भोग रहा हो तो मैं उसके प्राणहरणमें लेशमात्र भी दोष नहीं देखता।

जिस तरह रोगीके भलेके लिए उसके शरीरमें चीर-फाड़ करके डाक्टर हिंसा नहीं करता, बल्कि शुद्ध अहिंसाका ही पालन करता है, उसी तरह इससे जरा और आगे जाकर किसीके प्राण लेना भी अहिंसाका पालन हो सकता है। यह तर्क पेश किया गया है कि चीर-फाड़में तो रोगीके अच्छे होनेकी सम्भावना है; प्राणहरण तो उस सम्भावनाको समाप्त कर देता है। किन्तु विचार करनेपर जान पड़ेगा कि दोनोंमें साध्य वस्तु एक ही है। प्राण लेने और चीर-फाड़ करने, दोनों ही बातोंमें मन्शा शरीरमें स्थित आत्माको दुःख-मुक्त करना है। शरीरमें चीर-फाड़ करके सुख शरीरको नहीं, आत्माको पहुँचाना है। आत्मारहित शरीरमें सुख-दुःख भोगनेकी शक्ति ही नहीं है।

मृत्युदण्डका जो डर आजकल समाजमें दिखलाई पड़ता है, वह अहिंसा-धर्मके प्रचारमें बहुत बाधक है। किसीको गाली देना, किसीका बुरा चाहना, किसीका ताड़न करना, कष्ट पहुँचाना, सभी-कुछ हिंसा है। जो मनुष्य अपने स्वार्थके लिए दूसरेको कष्ट पहुँचाता है, उसका अंग-भंग करता है, भर पेट खानेको नहीं देता, और अन्य किसी तरहसे उसका अपमान करता है, वह मृत्युदण्ड देनेवालेकी अपेक्षा कहीं अधिक निर्दयता दिखलाता है। जिसने अमृतसरकी गली में लोगोंको चींटीके समान पेटके बल

 

  1. प्रेमका पंथ पावककी लपट है; लोग उसे देखते ही भाग खड़े होते हैं।