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'पावककी ज्वाला'

चलाया, अगर उसने उन्हें मार डाला होता तो वह कम घातक गिना जाता। अगर कोई यह माने कि पेटके बल रेंगवाना मृत्युदण्डसे हलकी सजा है तो मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि वह आदमी अहिंसाको नहीं जानता। ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जब कि मनुष्यके लिए मृत्युका स्वागत करना ही अधिक उचित होता है। जो इस धर्मको नहीं समझते वे अहिंसाके मूल तत्त्वको नहीं जानते।

हरिनो मारग छे शूरानो नहि कायरनुं काम जोने।

अर्थात् धर्मका मार्ग शूरोंके लिए है, यहाँ पर कायरोंका काम नहीं है।

हमें ईश्वरसे रोज यह प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे नाथ! असत्यका आचरण करके जीनेकी अपेक्षा, मुझे मौत ही देना।'

अहिंसा-धर्मका पालन करनेवाला अपने दुश्मनसे ऐसी प्रार्थना करेगा, 'हे मेरे शत्रु! मेरा अपमान करने, मुझसे अमानुषिक कर्म करानेके बदले तू मुझे मार ही डाल तो मैं तेरा गुण गाऊँ।'

ये दृष्टान्त सामने रखनेका अभिप्राय यह बतलाना है कि प्राणहरण हमेशा हिंसा ही नहीं है। बछड़ेकी स्थितिमें पड़े हुए पशुके प्राण लेनेका मेल इन दृष्टान्तोंसे बैठेगा या नहीं — यह जुदा विषय समझा जा सकता है, इस विषयमें मतभेद हो सकता है। यहाँ तो मैं सिर्फ अहिंसाके विषय में प्रचलित कुछ भ्रमोंको सूचित करना चाहता हूँ।

केवल मरणमें से ही किसी आदमीको या पशुको थोड़े समयके लिए बचा लेनेमें अहिंसा है – यह मान्यता एक वहम है, और मैं इससे आज देशमें घोर हिंसा होते हुए देखता हूँ। एक दुःखी, महापीड़ित पशुके प्राण लेने से जो आघात पहुँचा है, उसके साथ मैं जब असंख्य प्रकारकी चलती हुई निर्दयताके सम्बन्धमें उदासीनताकी तुलना करता हूँ तब यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि हम अहिंसा-धर्मी हैं या अहिंसाके नाम पर जान-बूझकर या अनजाने अधर्मका आचरण करनेवाले हैं।

हमारे अविचार और भीरुताके कारण मैं तो पग-पग पर हिंसा होते देख रहा हूँ। हमारे पिंजरापोल और हमारी गोशालाएँ हिंसाका स्थान बन गई हैं। स्वार्थ से अंधे होकर हम रोज ही अपने पशुओंपर अत्याचार करते हैं, उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं। अगर उनके जबान हो तो वे अवश्य कहेंगे, हमें इस तरह जो कष्ट देते हो, उसके बदले हमें मार ही डालो तो हम तुम्हारा यश गायें। मैंने तो अनेक बार उनकी आँखोंमें ऐसी प्रार्थना पढ़ी है।

इस परसे यह कहा जा सकता है कि स्वार्थके वश होकर या क्रोधमें किसी भी जीवको कष्ट दिया जाये या उसके अनिष्ट या प्राणहरणकी इच्छा भी की जाये तो वह हिंसा है। निःस्वार्थ बुद्धिसे, शान्त चित्तसे, किसी भी जीवकी भौतिक या आध्यात्मिक भलाईके लिए दिया गया दुःख या उसका प्राणहरण शुद्ध अहिंसा हो सकता है। प्रत्येक दृष्टान्तका विचार करके ही यह कहा जा सकता है कि ऐसे दुःख या प्राणहरण कब अहिंसक कहे जायेंगे। अन्ततः अहिंसाकी परीक्षाका आधार भावनापर रहता है।