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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 


हिंसक प्राणहरण

प्रस्तुत दृष्टान्त से उलटा एक दूसरा संकट आश्रमपर है। पहलेका निवारण सम्भव हो गया है। दूसरेका उपाय अभी प्राप्त नहीं हुआ है। आश्रममें बंदरोंका उपद्रव दिनों-दिन बढ़ता ही जाता है। वे फलों और शाक-भाजीको बरबाद कर देते हैं। इस उपद्रवसे बचनेका उपाय मैं खोज रहा हूँ। जो इस सम्बन्धमें रास्ता बतला सकते हैं, वैसे लोगोंकी सलाह ले रहा हूँ। मुझे अबतक कोई निर्दोष उपाय नहीं मिला है, किन्तु अनेक आदमियोंके साथ चर्चा करता हूँ और इसलिए शहरमें तरह-तरहकी अफवाहें फैली हुई हैं और मेरे पास कई कटु पत्र आये हैं। एक पत्रलेखक मानते हैं कि आश्रममें तीरसे बन्दरोंको घायल किया जाता है और इस कारण कितने ही बन्दर मर भी गये हैं। यह खबर झूठी है। बन्दरोंको हाँक निकालनेका प्रयत्न अवश्य किया जाता है और उसमें तीर भी काम में लाये गये हैं; किन्तु न तो किसी बन्दरको घायल किया गया, और न कोई बन्दर इस प्रकार मरा है।

घायल करनेकी बात खुद मेरे लिए असह्य है। अनिवार्य हो जाये तो उन्हें मार डालने के बारे में मैं चर्चा कर रहा हूँ। किन्तु यह प्रश्न बछड़ेके प्रश्नके समान सहज नहीं है।

बन्दरको मार भगाने में भी मैं शुद्ध हिंसा ही देखता हूँ। यह भी स्पष्ट है कि अगर उन्हें मार डालना पड़े तो उसमें अधिक हिंसा होगी। यह हिंसा तीनों कालमें हिंसा ही गिनी जायेगी। उसमें बन्दरके हितका विचार नहीं, किन्तु आश्रमके ही हितका विचार है।

देहधारी जीवमात्र हिंसासे ही जीते हैं। उसके परम धर्मको सूचित करनेवाला शब्द आखिर नकारात्मक निकला। जगत् यानी देहमात्र हिंसामय है। और इसी कारण अहिंसा-प्राप्तिके लिए देहके आत्यन्तिक मोक्षकी तीव्र इच्छा पैदा होती है।

हिंसाके बिना कोई देहधारी प्राणी जी ही नहीं सकता। जीनेकी इच्छा छूटती नहीं है। मन अनशन करके देह छोड़नेकी इच्छा नहीं करता। देह अनशन करे और मन अशन तो यह मिथ्याचार कहलायेगा, और आत्माको अधिक बन्धनमें डालेगा। ऐसी करुणाजनक स्थितिमें रहकर जीनेके लिए विवश जीव भला क्या करे? कैसी और कितनी हिंसाको अनिवार्य गिने? समाजने कुछएक हिंसाओंको अनिवार्य गिनकर व्यक्तिको विचार करनेके भारसे मुक्त कर दिया है। तो भी प्रत्येक जिज्ञासुके लिए अपना क्षेत्र समझ कर उसे नित्य छोटा करते जानेका प्रयत्न तो बच ही रहता है।

इस दृष्टि से खेती के व्यापक धंधेमें जो हिंसा है उसकी मर्यादाका निश्चय अहिंसा-धर्मका पालन करनेकी इच्छा रखनेवाले किसानको करना है। मैं अपनेको किसान मानता हूँ। मेरे सामने कोई सीधी लीक नहीं है। प्रत्येक किसान बिना विचारे किसी-न-किसी तरहसे अपना काम चला ही लेता है। क्योंकि शिष्ट-वर्गने उसकी अवगणना की है, उसके जीवनमें भाग नहीं लिया, दिलचस्पी नहीं ली और इसलिए किसान अपने जीवन में उत्तरोत्तर उन्नति नहीं कर सके।