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कामरोगका निवारण

 

इसलिए मेरे जैसे किसानको तो अपना मार्ग ढूंढ़कर, दूसरे किसान भाइयोंके लिए हो सके तो मार्गदर्शक बनना ही है।

इस तरह खेतीपर लागू होनेवाले जो अनेक प्रश्न नित्य पैदा होते हैं, उनमें से बन्दरोंका अटपटा प्रश्न भी एक है।

किन्तु उसे जान से मारनेमें हिंसा तो है ही; इसलिए यह अन्तिम कार्रवाई करनेके पहले जितने लोगोंकी सलाह ली जा सके, मैं उतने लोगोंकी सलाह ले लेना चाहता हूँ। 'नवजीवन' के पाठकोंमें से अगर कोई अनुभवी सज्जन आश्रमको रास्ता बतला सकेंगे तो वे उपकार करेंगे।

मैंने सुना है कि गुजरात के किसान ऐसे लोग रख देते हैं कि उन्हें देखते ही डरकर बन्दर भाग जाते हैं और किसान इस तरह यह मानते हैं कि हम अन्तिम हिंसासे बच गये। यह मुमकिन है, किन्तु यदि न हो तो उसके बाद जानसे मारना ही रह जाता है। मैं जानता हूँ कि बन्दर ऐसे विचक्षण होते हैं कि जब वे समझ लेते हैं कि उन्हें कोई मारेगा नहीं तब वे गोलियाँ छोड़ते रहो तब भी नहीं डरते, उलटे मुँह चिढ़ाने और खिखियाने लगते हैं। इसलिए सलाह देनेवाले कोई सज्जन यह न मानें कि इस उपद्रवसे खेतीको बचानेका ऐसा कोई भी रास्ता है जिसपर आश्रमने सोचा विचारा नहीं है। अभीतक जितने उपाय सामने आये हैं, उन सबमें हिंसा तो है ही। यदि बिना हिंसाके इस उपद्रवसे खेतीको न बचाया जा सके तो यही विचार करना रह जायेगा कि कमसे-कम कितनी हिंसा करके उसे बचाया जा सकता है। इसमें मैं अनुभवी सज्जनोंकी मदद चाहता हूँ।

[गुजरातीसे]

नवजीवन, ३०-९-१९२८

 

३५५. कामरोगका निवारण

थर्स्टन नामक लेखककी विवाह सम्बन्धी एक नई पुस्तकके[१] महत्त्वपूर्ण भागका अनुवाद अन्यत्र दिया जा रहा है। हरएक स्त्री-पुरुषको उसका ध्यानपूर्वक मनन करना चाहिए। हमारे यहाँ १५ वर्षके बालकसे लेकर ५० वर्षतक के पुरुष, और इसी उम्रकी, या इससे भी छोटी बालिकासे लेकर ५० वर्षतक की स्त्रीके मनमें यह विचार रूढ़ है कि विषय-भोगके बिना रहा ही नहीं जा सकता। इसलिए दोनों ही त्रस्त रहते हैं। एक-दूसरेका विश्वास नहीं करते। स्त्रीको देखकर पुरुषका मन हाथ से जाता रहता है और पुरुषको देखकर स्त्रीकी भी यही दशा हो जाती है। इससे कितने ही ऐसे रिवाज रूढ़ हो गये हैं जिनके फलस्वरूप स्त्री-पुरुष रोगी, निर्बल और निरुत्साही नजर आते हैं और जिनके कारण हमारी जिन्दगी इतनी हलकी हो गई है, जैसी मनुष्यके लिए उचित नहीं है।

 

  1. थर्स्टन्स फिलॉसफी ऑफ मैरेज; देखिए "चौंकानेवाले निष्कर्ष", २७-९-१९२८।