पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 37.pdf/३६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

ऐसे वातावरण में रचे गये शास्त्रों में भी इसी प्रकारकी आज्ञाएँ और मान्यताएँ देखने में आती हैं, जिनके परिणामस्वरूप स्त्री-पुरुषको परस्पर ऐसा व्यवहार करना पड़ता है, मानों वे एक-दूसरेके दुश्मन हों। क्योंकि एकको देखकर दूसरा विकारवश हो जाता है या उसे ऐसा होनेका भय रहता है।

इस मान्यता और उसके आधारपर गढ़े गये रिवाजोंके कारण या तो विषय-भोग में या उसके विचारमें जीवन व्यतीत हो जाता है और अन्तमें संसार विषके समान कड़वा लगने लगता है।

वास्तविक रीतिसे तो मनुष्य में विवेकबुद्धि होने से उसमें पशुकी अपेक्षा अधिक त्यागशक्ति और संयम होना चाहिए। मगर तो भी हम रोज ही यह अनुभव करते हैं कि पशु नर-मादाकी मर्यादाका कायदा जिस अंशतक पालता है, उस अंशतक मनुष्य नहीं पालता। सामान्य तौरपर स्त्री-पुरुषके बीच माता-पुत्र, बहन-भाई या पुत्री-पिता के समान सम्बन्ध होना चाहिए। यह तो स्पष्ट ही है कि दाम्पत्य सम्बन्ध अपवाद रूप में ही हो सकता है। किसी पुरुषको स्त्रीसे या किसी स्त्रीको पुरुषसे तभी भय होनेकी परिस्थिति बनती है जब भाईको बहनसे या बहनको भाईसे डरनेकी नौबत आ जाये। आज तो परिस्थिति यह है कि भाई-बहनके बीच संकोच रखा जाता है और रखना सिखलाया जाता है।

इस दयनीय स्थिति अर्थात् विषय-वासनाके दूषित वातावरणसे निकल जाना अत्यन्त आवश्यक है। हमारे बीच ऐसी मिथ्या भावनाओंने जड़ जमा ली है कि इस वासनासे उबरना असम्भव है। अब ऐसा दृढ़ विश्वास हममें उत्पन्न होना चाहिए कि इस मिथ्या भावनाको निर्मूल कर डालने में ही पुरुषार्थ है और ऐसा करना सम्भव भी है।

ऐसा पुरुषार्थ करनेमें थर्स्टनकी इस छोटी-सी पुस्तकसे बहुत मदद मिलेगी। इस लेखककी यह शोध मुझे तो ठीक जान पड़ती है कि विषय-वासनाके मूलमें आजकलकी विवाह सम्बन्धी मान्यता और उसके आधारपर रचे गये रिवाज हैं, जो पूर्व-पश्चिम सभी स्थानोंमें व्याप्त है। स्त्री-पुरुषका रातको एकान्तमें, एक कमरेमें और एक बिस्तर पर सोना दोनोंके लिए घातक है, और विषय-वासनाको व्यापक और स्थायी करनेका प्रचण्ड उपाय है। एक ओर तो संसारके सभी दम्पति ऐसा व्यवहार करें और दूसरी ओर धर्मोपदेशक और सुधारक संयमका उपदेश दें तो यह आसमानमें पैबन्द लगानेके समान है। ऐसे विषय-वासनापूर्ण वातावरणमें संयमके उपाय निरर्थक हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? शास्त्र पुकार-पुकारकर कहते हैं कि विषय-भोग केवल प्रजोत्पत्तिके लिए ही किया जा सकता है। इस आज्ञाका उल्लंघन प्रतिक्षण होता है और इस वजहसे रोग हो जानेपर उनके दूसरे कारण ढूंढे जाते हैं। यह तो वैसी ही बात हुई कि बगलमें लड़का और शहरमें ढिंढोरा। अगर दीयेके समान ऐसी साफ बात समझ ली जाये तो:

१. पति-पत्नी आजसे प्रतिज्ञा करें कि हमें एकान्त में सोना ही नहीं है और न दोनोंकी इच्छाके बिना प्रजोत्पत्ति करनी है। यथासम्भव दोनोंको दो जुदा कमरोंमें