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३६०. पत्र: श्रीप्रकाशको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
२ अक्टूबर, १९२८

प्रिय श्रीप्रकाश,

आपका सूत पहलेसे अच्छा है, लेकिन अब भी उस दर्जेका नहीं हो पाया है जैसा होना चाहिए। आपको कृपलानीके आश्रमसे[१] किसीको बुलाना चाहिए जो आपको सही तरीका बतलाये या यहाँ आकर सीख लीजिए।

बनारसकी घटना[२] मैंने जान-बूझकर छोड़ दी है, उसी प्रकार जिस प्रकार मैंने अपने जीवन के अन्य कई दिलचस्प अध्याय छोड़ दिये हैं। सच तो यह है कि मैं जैसे-जैसे इन अध्यायोंको लिखता जाता हूँ, मेरा संकोच भी बढ़ता जाता है। इसलिए कि उनमें भाग लेनेवाले मुख्य पात्र इस समय जीवित हैं और वे जनताके काफी जानेमाने व्यक्ति हैं। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि अब आगेके अध्याय लिखना छोड़ ही दूँ, पर १९२० के विशेष अधिवेशनके[३] काल तक पहुँचने से पहले इसे छोड़ा भी नहीं जाता। वैसे अपने तई मैं बनारसकी घटनाको अपने जीवनकी गर्व करने योग्य घटनाओं में लिखता हूँ। मैं वास्तव में उसके लिए तैयार नहीं था और आज तक मैं नहीं समझ सका हूँ कि उस परीक्षा से सफलता के साथ निकलने की शक्ति मुझमें आ कहाँसे गई थी। अपने जीवनकी इस तरहकी बहुत सारी घटनाओंके बारेमें यही उक्ति दोहरा सकता हूँ – 'तुझमें जो कमियाँ थीं, उन्हें तेरी आस्थाने पूरा किया।'

आपका भेजा हुआ चेक यथासमय मिल गया।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत श्रीप्रकाश
सेवाश्रम
बनारस छावनी

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १३५३८) की माइक्रोफिल्मसे।

 

  1. गांधी आश्रम, बनारस।
  2. देखिए खण्ड १३, पृष्ठ २१७-१८ अपने २६ सितम्बरके पत्र में श्रीप्रकाशने लिखा था: "आपकी आत्मकथामें मैं एक अध्यायकी प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकतासे कर रहा था। मेरा मतलब उस प्रसंगसे है जब आपने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयका शिलान्यास किया था और जब आपके भाषण में यह एक वाक्य सुनकर कि "राजा-महाराजाओ! आप सब यहाँसे जाकर जवाहरात बेच दीजिए", सभी राजा-महाराजा वहाँसे उठकर चल दिये थे। इसकी "शिकायत" मैंने सेठ जमनालालसे की। उन्होंने आपको लिखनेको कहा। अब मैं इस आशासे आपको लिख रहा हूँ कि वह सुन्दर अध्याय अब भी शामिल किया जा सके और वह महान घटना सदाके लिए लिपिबद्ध हो जाये।"
  3. कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसका विशेष अधिवेशन।