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शिक्षा विषयक प्रश्न - ५


कलामें एक बहुत बड़ा भेद यह है कि चित्रकला कोई व्यक्तिविशेष ही सीख सकता है, जबकि संगीत सभीको सीखना चाहिए और यह हो सकता है। चित्रकलाके अन्तर्गत सीधी रेखाएँ खींचने, स्थावर-जंगम वस्तुओंके नमूने उतारने की कला सबको सिखलाई जा सकती है। उसकी आवश्यकता है और मैं बहुत चाहता हूँ कि हरएक बालकको अक्षर कला सिखलानेके पहले ही इस हदतक चित्रकला सिखलाई जाये।

प्रश्न: व्याकरण, चक्रवृद्धि ब्याज, उच्च भूमिति वगैरह जिन विषयोंके आगे चलकर भूल जानेकी ही अधिक सम्भावना है, कुछ लोग उन्हें राष्ट्रीय शिक्षामें न रखने की सलाह देते हैं। आप भी इससे सहमत होंगे। अगर बात ऐसी हो तो फिर उर्दूको इसी कोटिमें क्यों न रखें? हिन्दू और मुसलमान, जब एक-दूसरेसे परिचय करनेको उत्सुक होंगे, और जब उन्हें एक-दूसरेकी संस्कृतिको समझनेकी उत्कंठा होगी, तभी संस्कृत या उर्दूका ज्ञान काममें आयेगा या स्थायी होगा। आजका अनुभव भी ऐसा है कि विद्यार्थी थोड़ी-सी उर्दू सीखते हैं और फिर भूल जाते हैं। उर्दूके जरिये व्यक्त होनेवाली संस्कृतिके प्रति जब आदर और उसे सीखनेका भाव होगा तभी उर्दू के ज्ञानका इस्तेमाल होगा और तभी वह बढ़ेगा। ऐसा होने तक तो वह गणेश-पूजाके समान धार्मिक विधि ही बना रहेगा।

उत्तर: व्याकरण, चक्रवृद्धि ब्याज और उच्च भूमिति —— इन तीनोंको एक साथ क्यों रखा गया है, यह मैं नहीं समझा। मैं यह बात मानता आया हूँ कि भाषाके ज्ञानके लिए व्याकरण अत्यावश्यक है और व्याकरण तथा उच्च भूमिति बहुत दिलचस्प विषय हैं। दोनों बुद्धिके निर्दोष विनोद हैं। इसलिए उच्च शिक्षा लेनेवाले और भाषाशास्त्र जाननेवाले के लिए इन दोनों विषयोंको में राष्ट्रीय शिक्षामें स्थान दूंगा। जिन्हें हिसाब वगैरह करना पड़ता है, उनका तो चक्रवृद्धि ब्याजके बिना काम चल ही नहीं सकता। इसलिए प्रश्नमें सुझाये गये तीनों विषयोंका अपना-अपना स्थान राष्ट्रीय शिक्षामें है ही। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शिक्षा के लिए कुछ विषय तो संसार-भरमें सामान्य होने चाहिए और वे हैं भी। आज सरकारी और राष्ट्रीय शिक्षा, इस तरहके दो भेद करने पड़ते हैं, क्योंकि सरकारी शिक्षाका झुकाव राष्ट्रके विकासके लिए विघातक है। किन्तु सरकारी शाला में बहुत कुछ ऐसा है जो हमारी शालामें हो सकता है और होना चाहिए। ऐसा होने पर भी इन सरकारी शालाओंका वातावरण पराधीनताका पोषक है और संकटके समय उनका उपयोग राष्ट्रको दबानेमें होता है। इसलिए वे सर्वथा त्याज्य हैं। और यह तो हम देख ही चुके हैं कि उनमें कुछ शिक्षा बिलकुल अनावश्यक है और कुछ बोझ-रूप है; किन्तु मैं विषयसे बाहर चला गया। इस प्रश्नके पीछे क्या है, उसे मैंने शायद ठीकसे न समझा हो, इस भयसे इतना कहना जरूरी लगा।

इन तीनों विषयोंके साथ उर्दूकी तुलना नहीं की जा सकती। हिन्दुओं और मुसलमानोंको जब एक होना होगा, तब वे एक हो लेंगे; किन्तु राष्ट्रीय शालाओं में तो हमें एक-दूसरेके प्रति प्रेमका ही पोषण करना चाहिए। ऐसा करनेके लिए एक-दूसरेके धर्मका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। विद्यार्थी अगर थोड़ी-सी उर्दू सीख-