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भ्रान्त मानवीयता?

अनेक लोगोंने, जो हम दोनोंके मित्र हैं, इन विषयोंको लेकर कराचीमें चल रहे विवादकी ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया और मुझसे अपने विचार व्यक्त करनेका अनुरोध किया है। मेरा ख्याल है कि यह अनुरोध शायद इस आशासे किया गया है कि इस तरह वे या तो अध्यक्षके विचारोंको प्रभावित कर सकेंगे, क्योंकि अध्यक्ष महोदय जानते हैं कि मैं उनका कितना आदर करता हूँ, या यदि उनपर कोई प्रभाव नहीं डाल पायेंगे तो कमसे-कम इतना तो होगा कि वे एक लोकप्रिय अध्यक्षके – पत्रलेखकोंकी अपनी दृष्टिसे – भ्रामक विचारोंके कारण कराचीकी जनताको भ्रमित होकर गलत काम करने से रोक सकेंगे। मेरे विचारोंका ऐसा कोई प्रभाव पड़े या न पड़े, पर इन प्रश्नोंके बारेमें श्रीयुत जमशेद मेहताके विचारोंकी शान्त मनसे सम्मानपूर्वक छानवीन करना जरूरी है।

उनका कहना है कि उन्होंने खादी-सम्बन्धी प्रस्ताव नगरपालिकाकी भावनाओंका जायजा लेनेके लिए ही पेश किया और सदस्योंके विरोध करनेपर उसे वापस ले लिया। मैं एक समाचारपत्रसे उस प्रस्ताव और उसके सम्बन्ध में दिये गये तर्क उद्धृत कर रहा हूँ:

यह निगम दिनांक २ जुलाई, १९२४ का अपना प्रस्ताव, संख्या ३०४, रद करने का निश्चय करता है, क्योंकि हर मामलेमें हाथ-कते और हाथ-बुने खद्दरको लाजिमी खरीद और इस्तेमाल नगरपालिकाके अलग-अलग विभागोंमें अकसर नगरपालिकाके धनकी हर तरहसे बरबादी ही साबित हुआ है।
अध्यक्ष महोदयने उक्त प्रस्ताव पेश करते हुए शुरूमें ही सदनको आश्वस्त किया कि वास्तवमें वे स्वयं तो खादीके प्रयोगको लोकप्रिय बनाने के पक्षमें ही हैं, लेकिन गत तीन वर्षोंमें निगमने इस कुटीर उद्योगको प्रोत्साहित करने के लिए जो राशि खर्च की थी वह एक लाख रुपये से किसी कदर कम नहीं है, फिर भी उनकी ईमानदाराना राय यही थी कि निगम द्वारा दी गई खादी पहननेवाले गरीब श्रमिक कर्मचारियोंकों बड़ी तंगीका सामना करना पड़ता है। खादीपर इतनी भारी राशि खर्च करके निगमके पार्षद स्वयं अपने साथ और करदाताओं के साथ भी बड़ा अन्याय कर रहे हैं, जबकि इस व्ययसे खादी पहनने-वालोंको भी कोई लाभ नहीं पहुँचता। इतना भारी कपड़ा पहनकर सड़कोंपर काम करनेके लिए भेजना मेहतरोंके साथ सचमुच निर्दयतापूर्ण व्यवहार करना है। और फिर सफेद खादी बहुत जल्द मैली हो जाती है और गरीब चपरासियोंको उसे धोनेपर काफी पैसे खर्च करने पड़ते हैं। रंगीन खादी भी प्रयोग की गई थी, पर उसका कोई लाभ नहीं दिखा। निगम तो उनको दो पोशाकें ही दे सकता है और उनको साफ रखने के लिए उनको काफी खर्च करना पड़ता है। अध्यक्ष महोदयने बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें कहा: "मैं आपसे कहता हूँ कि यह सचमुच क्रूरता है। हमने लगभग एक लाख रुपये खर्च किये हैं, लेकिन इनमें से ८५,००० रुपये बिलकुल बेकार गये। हमारा प्रयोजन पूरा नहीं हुआ। जबतक हम उनको ज्यादा अच्छे किस्म की, हलकी-फुल्की खादी नहीं दे पाते, जिसमें इसका दूना खर्च पड़ेगा, तबतक हमें उनको खादीकी पोशाकें देनेकी बात नहीं सोचनी चाहिए। हम इस समय अपने चपरासियोंको जैसी पोशाकें दे रहे हैं, उनको देखकर रुलाई छूटती है।"