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भ्रान्त मानवीयता?

लोग भी यह काम सीखें और फिर उसे अपने ही नगरमें बुनवा लिया जाये। तब अन्य नागरिक भी पार्षदोंके देशभक्तिपूर्ण और श्रम-साध्य उदाहरणपर चलने लगेंगे और यदि कराचीके, मान लीजिए, एक तिहाई लोग भी परोपकारकी भावनासे केवल आधा घंटा रोज कताईको देने लगें तो कर्मचारियोंकी आवश्यकतासे कई गुनी अधिक खादी सुलभ हो जायेगी।

इस तरीकेको अपनानेपर एक बहुत ही ठीक आपत्ति यह की जा सकती है कि इस प्रकार तैयार की गई खादीसे उन गरीबोंको तो कोई मदद नहीं मिलेगी जिनके हितके लिए सार्वजनिक निगमोंको खादी अपनानेकी सलाह दी जाती है। इस प्रकारकी आपत्ति अपने-आपमें बिलकुल सही और उचित है, पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मेरे सुझाये इस तरीकेको यदि किसी शहरकी जनता अपना ले तो वह भारतके गरीबोंकी परोक्ष रूपमें ही सही, पर वास्तव में काफी ठोस सेवा होगी, क्योंकि त्यागकी भावनासे की जानेवाली कताईका नैतिक प्रभाव इतना व्यापक होगा कि चारों ओर कताईका एक वातावरण तैयार हो जायेगा और अबतक कोई उत्साह न दिखानेवाली जनता भी अपनी वर्तमान आयमें वृद्धि करनेके लिए इस तरीकेको अपनानेकी प्रेरणा पायेगी, क्योंकि सभी मानते हैं कि उसकी वर्तमान आयका स्तर उसे मनुष्यकी तरह जिन्दा रखने के लिए भी अपर्याप्त है। जहाँ औसत रोजाना आमदनी सात पैसेसे भी कम हो, वहाँ एक पैसे रोजकी वृद्धि भी सचमुच बड़ी चीज होगी।

परन्तु हो सकता है कि इसको एक ऐसा आदर्शभूत परामर्श माना जाये जिस पर व्यावहारिक किस्मके कामकाजी लोगोंके लिए विचार करनेकी गुंजाइश नहीं है। खैर, मैं जानता हूँ कि आदर्शवादी अध्यक्ष तो मेरे सुझावको इस तरह एक झटके में रद नहीं करेंगे। लेकिन जो लोग मेरे सुझाये ढंग से घरोंमें हाथ-कताईके कामका संगठन गम्भीरता-पूर्वक और विधिवत् नहीं करना चाहेंगे, उनको मैं बतलाना चाहता हूँ कि यदि वे इतना याद रखें कि खादीपर खर्च होनेवाली एक-एक पाई सीधे उन्हीं लोगोंकी जेबमें जाती है जो जरूरतमन्द हैं और उसमें से भी कमसे-कम पचासी प्रतिशत भाग तो सबसे गरीब दस्तकारोंको मिलता ही है, जिनमें अधपेट रहनेवाले कतैये भी शामिल हैं, तो उनको खादीपर होनेवाला भारीसे-भारी व्यय भी निरर्थक नहीं लगेगा और उसके कारण उठाई गई बड़ी से बड़ी असुविधा भी असुविधा जैसी नहीं लगेगी।

लेकिन अध्यक्ष महोदय कहते हैं:

कर्मचारियोंको स्वदेशी मिलोंके कपड़ोंकी बनी पोशाकें देकर खादीपर किये जानेवाले व्ययमें से साठ प्रतिशतकी बचत क्यों न की जाये?

गरीबोंके दोस्त, श्रीयुत जमशेद मेहतासे तो मुझे इस तर्ककी जरा भी उम्मीद नहीं थी। यदि हर नगरपालिकामें सामर्थ्य हो और हर नगरपालिका खादीको बढ़ावा देनेके लिए यह साठ प्रतिशत राशि खर्च कर दे तो निश्चय ही वह कोई गलत काम नहीं होगा।

और मैं इन पृष्ठोंमें बार-बार सिद्ध कर चुका हूँ कि खादी और मिलके कपड़ेकी उसी तरह कोई तुलना नहीं की जा सकती जिस तरह घरकी बनी चपाती और मशीनके