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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कहीं आसानी से बने, सस्ते बिस्कुटोंकी कोई तुलना नहीं की सकती, भले ही चपाती तैयार करने में कितनी ही मेहनत और खर्च क्यों न लगता हो। मिलके वस्त्रोंको जनताके संरक्षणकी वैसी दरकार नहीं जैसी खादीको है। जब खादी किसी भी कीमतपर नहीं मिलती, जब मशीनका कपड़ा खरीदना आवश्यक हो जाता है और जब हम विदेशी वस्त्रों और स्वदेशी मिलोंके वस्त्रों में से ही एकको चुननेको विवश हो जाते हैं, तब भारतीय मिलोंके वस्त्रोंको वह वरीयता मिल ही जाती है जो उसे मिलनी चाहिए। यह तो स्पष्ट ही है कि खादीको इन दोनोंका स्थान लेना है। मिलके वस्त्रोंकी तरह खादी के लिए तो कोई जमा-जमाया बाजार है नहीं। खादी तो अबतक बाजारमें आम तौरपर मिलनेवाली वस्तु भी नहीं बन पाई है। खादीकी खरीदपर जितना भी व्यय किया जाता है उसका कमसे कम पचासी प्रतिशत भारतके भुखमरों और गरीबोंको मिल जाता है। इसके विपरीत मिलके बने वस्त्रोंपर किये जानेवाले व्ययका पचहत्तर प्रतिशत से अधिक भाग पूंजीपतियोंकी और पच्चीस प्रतिशत से कम उन मजदूरोंकी जेबोंमें जाता है जो इतने असहाय नहीं हैं, जो अपने हितोंकी रक्षा आप कर सकते हैं, और जो कभी भी उस तरह भूखसे नहीं तड़पते और न जिन्हें उस तरह तड़पने की जरूरत है, जिस तरह कि भारतके वे करोड़ों लोग तड़पते हैं जिनकी राहतके लिए खादीकी योजना तैयार की गई है। सच तो यह है कि नगरपालिकाके जिन कर्मचारियोंके बारेमें ऐसा मानकर कि मोटी-खुरदरी खादी पहनने में उन्हें असुविधा होती है, मानवीय दृष्टिकोणके धनी श्रीयुत मेहताने यह कदम उठाया है, उन कर्मचारियोंको यदि खादीका जबरदस्त राष्ट्रीय महत्व समझा दिया जाये और तब वे खुद ही मिलके कपड़ोंके बजाय – चाहे वे पहनने में जितने भी सुविधाजनक हों – खादीको ही पसन्द न करें तो यह मेरे लिए बड़े आश्चर्य की बात होगी। जबतक खादी करोड़ों लोगोंको रोजगार और इस तरह रोटी देनेका साधन बनी हुई है, तबतक मेरी राय में वह हर कीमतपर सस्ती ही है।

(२)

श्रीयुत जमशेद मेहता मानवतावादी ही नहीं, एक अत्यन्त उत्साही शाकाहारी भी हैं और वे अपने सिद्धान्तोंकी खातिर अपने मित्रोंके कोपभाजन बननेसे भी भय नहीं खाते। पता नहीं कैसे, वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि शुद्ध घीसे वनस्पति घीके नामसे जाना जानेवाला उत्पादन – जिसे विदेशोंके उद्यमशील निर्माता भारतमें लाये हैं – ज्यादा अच्छा होता है। उनका कहना है कि शुद्ध घी कहनेको तो शुद्ध घी होता है, लेकिन वास्तव में उसमें लगभग हमेशा पशुओंकी चरबीकी मिलावट रहती है। शाकाहारके लिए मेरे मनमें किसी से भी कम उत्साह नहीं है, और मैं स्वयं बाजारके घीसे सदा बचता हूँ और यदि डाक्टरोंका थोड़ा भी इशारा मिल जाये या मैं दृढ़तासे संकल्प कर सकूँ तो मैं बकरीके दूधके घीको भी बिलकुल छोड़ दूँ, लेकिन इतना सब होनेपर भी, मैं आजतक कृत्रिम साधनोंसे रासायनिक रूपमें वनस्पति से तैयार की जानेवाली उस वस्तुका प्रयोग करनेके लिए अपने मनको तैयार