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३७६. हमारा कर्त्तव्य

गोधरामें जो करुणाजनक दुर्घटना हुई और जिसके कारण भाई पुरुषोत्तमदास शाहने वीरतापूर्वक मृत्युको अपनाया, उसके बारेमें 'नवजीवन' में मैंने एक टिप्पणी लिखी थी।[१] उसका शीर्षक दिया था 'गोधरामें हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा'। यह शीर्षक कुछ हिन्दू भाइयोंको पसन्द नहीं आया। कितनोंने ही क्रोध-भरे पत्र लिखे और शीर्षक सुधारनेको कहा। मैं उस घटनाको दूसरा नाम नहीं दे सकता। मरनेवाले एक हों या अनेक, यदि दो पक्ष आमने-सामने खड़े होकर लड़ें या एक ही पक्ष मारे और दूसरा मरे, तो भी यदि इस सबका कारण वैमनस्य ही रहा हो तो यह लड़ाईके अन्तर्गत ही आयेगा। क्या गोधरामें और क्या दूसरे स्थानोंमें, आज हिन्दू-मुसलमानोंके बीच लड़ाई ही चलती है। सौभाग्यसे अबतक गाँव उससे अछूते रहे हैं और कुछ ही शहरोंको छोड़कर बाकी सभी छोटे-बड़े शहरोंमें, एक या दूसरे रूपमें लड़ाई चल ही रही है। अपने पास आये पत्रोंके आधारपर भी मुझे यही नजर आता है कि गोधरामें जो कुछ हुआ, वह लड़ाईका ही परिणाम है और इस बातसे तो कोई इनकार करता हुआ नहीं जान पड़ता।

इसलिए अगर महज लेखके शीर्षककी शिकायत करके पत्रलेखक शान्त रह जाते तो मैं यहाँ कुछ भी न लिखता, और उन शिकायत करनेवालोंको अलग-अलग जवाब देकर शान्त हो जाता। किन्तु दूसरे पत्र जो आये हैं, उनमें मुझपर दूसरे ही कारणसे क्रोध प्रगट किया गया है। किसी स्वयंसेवकने एक लम्बा पत्र लिखा है; जिसका सार इस प्रकार है:

आप लिखते हैं कि मैंने हिन्दू-मुसलमानोंकी लड़ाईके विषयमें मौन ले लिया है। जब आपने हमसे खिलाफतमें मदद दिलवाई थी, तब मौन क्यों नहीं लिया था? आपने अहिंसाकी बात करते समय मौन क्यों नहीं लिया? अब जब दोनों लड़ रहे हैं और हिन्दू मारे जा रहे हैं, तब आप मौन धारण किये बैठे हैं। यह कहाँका न्याय है? इसमें अहिंसा कहाँ है? दो घटनाओंकी ओर आपका ध्यान खींचता हूँ।
एक हिन्दू व्यापारीने मुझसे कहा: "मेरी दुकान में आकर मुसलमान चावलके बोरे ले जाते हैं। वे दाम नहीं देते और मैं माँग भी नहीं सकता; क्योंकि अगर माँगूं तो वे मेरी बखार ही लूट लें। इसलिए मुझे हर महीने दससे पन्द्रह बोरे तक मुफ्त देने पड़ते हैं और एक बोरेमॅ ५ मन चावल होता है।"

 

  1. देखिए "टिप्पणियाँ", २०-९-१९२८।