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हमारा कर्त्तव्य

 

दूसरे कहते हैं: “हमारे मुहल्लोंमें मुसलमान आकर हमारे देखते हुए ही हमारी स्त्रियोंका अपमान करते हैं और हम एक शब्द नहीं बोल सकते। अगर कुछ बोलें तो हमारी बड़ी गत बने। इस बारेमें हम शिकायततक नहीं कर सकते।”
अब आप ऐसे मामलों में क्या सलाह देंगे? यहाँ अहिंसा-धर्म किस प्रकार लागू करेंगे? क्या इसका जवाब भी मौन रखकर ही देंगे?

इस प्रकारके प्रश्नोंके जवाब ‘नवजीवन’ में दिये जा चुके हैं। मगर तो भी लोग बार-बार उन्हें पूछते ही चले जाते हैं; इसलिए बार-बार उनका जवाब देना उचित है।

अहिंसा डरपोक या निर्बलका धर्म नहीं है। वह तो बहादुर और जानपर खेलनेवालेका धर्म है। जो तलवारसे लड़ते हुए मरता है, वह बहादुर अवश्य है; किन्तु जो मारे बिना धैर्यपूर्वक खड़ा-खड़ा मरता है, वह अधिक बहादुर है। इसलिए जो मारके डरसे चावलके बोरे मुफ्त दे देता है, वह डरपोक है, कायर है, अहिंसक नहीं है; वह अहिंसाके तत्त्वको नहीं जानता।

मारके डरसे जो अपनी स्त्रियोंका अपमान सहन करता है, वह मर्द न रहकर नामर्द बनता है। वह पति, पिता या भाई बनने लायक नहीं है। ऐसे आदमियोंको शिकायत करनेका अधिकार नहीं है। जहाँ नामर्द बसते हैं, वहाँ बदमाश तो होंगे ही।

ऐसी घटनाओंका हिन्दू-मुसलमानोंके पुश्तैनी झगड़ेसे सम्बन्ध नहीं है। जहाँ मूर्ख होंगे, वहाँ ठग भी होंगे। इसी तरह जहाँ नामर्द होंगे, वहाँ गुंडे भी होंगे ही; फिर वे गुंडे चाहे हिन्दू हों या मुसलमान। झगड़ा शुरू होनेके पहले भी ऐसी घटनाएँ हुआ ही करती थीं। इसलिए यहाँपर प्रश्न यह नहीं है कि अमुक जातिसे कैसे बदला चुकाया जाये, अथवा उसे किस तरह भला बनाया जाये; बल्कि सवाल यह है कि जो नामर्द हों, उन्हें मर्द कैसे बनायें। जो चतुर हैं, सयाने हैं, वे अगर हिन्दू-मुस्लिम तनातनीके मूलमें छिपी हुई दोनों जातियोंकी निर्बलता, दोनों जातियोंकी मूर्खताको देख जायें तो हम इन झगड़ोंका हल तुरंत निकाल सकते हैं। दोनोंको बलवान बनना है, दोनोंको चतुर बनना है। दोनों अथवा एक समझदारीसे होशियार बने तो यह हुआ अहिंसाका मार्ग; दोनों लाचारीसे होशमें आयेंगे तो वह हिंसाका मार्ग होगा। मनुष्य-समाजमें यानी स्वतन्त्रताको पूजनेवाले मनुष्य-समाज में कायरको स्थान नहीं है। स्वराज कायरके लिए नहीं है।

इसलिए ये घटनाएँ लिखकर अहिंसाकी निन्दा करना, या मुझपर रोष प्रकट करना, मेरी दृष्टिमें व्यर्थ है। १९२१ के सालमें बेतियाके अनुभव के बादसे ही[१] मैं कहता आया हूँ कि जो मरकर अपनी या अपने सगोंकी रक्षा नहीं कर सकता, उसे मारकर अपनी या अपने सगोंकी रक्षा करनेका अधिकार है, यह उसका धर्म है। जिसमें इतनी शक्ति न हो, वह नपुंसक है। उसे कुटुम्बका मालिक या पालक होनेका अधिकार नहीं है। उसे अरण्यका सेवन करना चाहिए अथवा वह हमेशा लाचारकी स्थिति में रहेगा, उसे रोज चींटीके समान पेटके बल रेंगने के लिए तैयार रहना चाहिए।

 
  1. देखिए खण्ड १९, पृष्ठ ११८-२१।