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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मेरे पास तो एकमात्र मार्ग अहिंसाका ही है। मुझे हिंसाका मार्ग नहीं रुचता। उसे सिखलानेकी शक्ति मैं पैदा नहीं करना चाहता। आज जो वातावरण व्याप्त है उसमें अहिंसाके प्रचारको स्थान नहीं है। इसलिए मैं आजकी लड़ाइयोंके बारेमें मौन धारण किये बैठा हूँ। अपनी ऐसी लाचारीका प्रदर्शन मुझे प्रिय नहीं हो सकता। मगर ईश्वरका यह कायदा नहीं है कि हमें जो अप्रिय हो, वह कभी न होने दे, और जो प्रिय हो, वही होने दे। फिर ईश्वर निराधारका ही सहायक है, राम ही निर्बलका बल है, गजराज जब हार गये तभी भगवानने उनकी सहायता की; मैं यह सब जानता हूँ, इसलिए अपनी लाचारीको सहन कर रहा हूँ, और विश्वास रखता हूँ कि मुझे किसी दिन ईश्वर ऐसा मार्ग बतलायेगा, जिसे ग्रहण करके मैं लोगोंको भी बता सकूँगा। मैंने अपना यह विश्वास जरा भी नहीं खोया है कि हिन्दू-मुसलमानोंको किसी-न-किसी दिन एक होना ही है। वे कब और कैसे मित्र बनेंगे सो हम कैसे जानें? भविष्यकी सरदारीका इजारा, ईश्वरने अपने ही हाथ में रखा है। हमें उसने विश्वासरूपी नौका दी है। यदि उसमें हम बैठें तो सहज ही शंकारूपी समुद्रको पार कर जायेंगे।

[गुजराती से]
नवजीवन, ७-१०-१९२८
 

३७७. अहिंसाकी समस्याएँ

बछड़े और बन्दरोंके विषय में लेख[१] लिखकर मैंने आलोचकोंका पर्याप्त रोष मोल ले किया है। कोई गालियाँ देकर अपनी अहिंसा प्रकट कर रहा है, तो कोई सख्त आलोचना करके मेरी अहिंसाकी परीक्षा ले रहा है। और कोई विवेकपूर्वक अपनी कठिनाइयाँ सामने रख रहा है। सभी पत्र-लेखकोंको जवाब देने लायक समय मेरे पास नहीं है, और न जवाब देनेकी जरूरत है। ठेठ गालियोंसे भरे लेखोंसे मेरी सहन-शक्तिका माप निकालनेके सिवा और कोई लाभ होनेवाला नहीं है। दूसरे दो प्रकारके पत्रोंमें से कुछ तर्क लेकर मैं उनपर विचार करना चाहता हूँ।

किन्तु उन तर्कोंके उत्तर देनेके पहले मैं लिखनेवालोंसे एक विनती कर लूँ। वे मर्यादाका पालन करते हुए मेरी जो भूल हो सो मुझे बतलायें और अपनी जो भूलें दिखें उन्हें देखें। खूब तटस्थ रहनेका प्रयत्न करते हुए भी:

  1. अविवेकपूर्ण पत्रोंसे मैं बहुत नहीं सीख सकता।
  2. पेंसिलसे लिखे हुए खराब अक्षरवाले लेखोंको पढ़ना अशक्य है।
  3. लम्बे निबन्ध मेरे पास भेजना व्यर्थ है।
     
  1. देखिए “पावककी ज्वाला”, ३०-९-१९२८।