संक्षिप्त, सुन्दर अक्षरोंमें स्याहीसे लिखे गये पत्रोंको पढ़ने और उनपर विचार करनेके लिए मैं तैयार हूँ, उत्सुक हूँ। मैं एक नम्र शोधक हूँ। मैं ‘नवजीवन’ के द्वारा सिर्फ सिखलानेका ही काम नहीं करता, सीखनेका भी प्रयास करता हूँ।
लेखकोंके मुख्य तर्क और उपदेश इस प्रकार हैं:
- अब आप अहिंसाके क्षेत्र से त्यागपत्र दे दीजिए।
- क्या आप अहिंसा-सम्बन्धी अपने विचार पश्चिमसे नहीं लाये है?
- अगर आपके विचार सच्चे भी हों, तो भी जहाँ अनर्थ होनेका भय हो, वहाँ उन्हें आपको प्रकट नहीं करना चाहिए।
- यदि आप कर्मवादको मानते हैं तो बछड़ेके प्राण लेकर कर्मके नियमका विरोध करना निरर्थक है।
- आपको यह मान लेनेका क्या अधिकार था कि बछड़ा अब चंगा होगा ही नहीं; कदापि नहीं बचेगा? क्या आप नहीं जानते कि जिन्हें डाक्टर-वैद्योंने चन्द मिनटोंका मेहमान कहा था, वे भी अनेकों बार बच गये हैं?
अहिंसाके या किसी दूसरे क्षेत्रसे त्यागपत्र देने या न देनेकी बात तो खुद मुझे ही विचारनी है। आदमी अधिकारसे त्यागपत्र दे सकता है; जो कर्त्तव्यसे त्यागपत्र दे, वह कर्तव्यभ्रष्ट हुआ गिना जायेगा। सच कहने और करनेवाले के भाग्यम लोकनिन्दा तो प्रायः होती ही है। मैंने यह सीखा है कि अपने-आपको जो बात सच्ची जान पड़े, अगर वह प्रस्तुत हो तो उसे प्रकट करना सत्याग्रहीका धर्म है। जबतक मुझे ऐसा लगे कि अहिंसाके विषय में मैंने जो कल्पना की है, वह सही है, तो मेरा उसे जाहिर न करना कर्तव्यभ्रष्ट होना कहलायेगा।
बछड़ेके बारेमें मेरे विचार अगर पश्चिमी शिक्षाके परिणाम हों, तो मेरे लिए इसमें शर्मकी कोई बात नहीं है। पश्चिमसे ज्ञान लेना ही नहीं चाहिए, या वहाँ जो-कुछ होता है सो सब बुरा ही है, मेरी ऐसी मान्यता नहीं है। पश्चिमसे मैंने बहुत-कुछ सीखा है। मैंने अहिंसाके स्वरूपके बारेमें भी बहुत-कुछ वहाँसे सीखा हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मेरे इन विचारोंपर कौन-सा बाहरी प्रभाव पड़ा है, सो मैं नहीं जानता। हाँ, यह जानता हूँ कि अब तो वे मेरी अन्तरात्मामें बस गये हैं।
बात ऐसी नहीं है कि अपनी किसी भी रायको सच्ची माननेके कारण ही मैं उसे प्रकट कर देता हूँ। किन्तु बछड़ेसे सम्बन्धित मेरे विचारोंके मूलमें अहिंसा निहित है, इसलिए वे कल्याणकारी हैं, ऐसा मानकर मैंने उन्हें प्रकट किया था। मैं नहीं जानता, बन्दरोंके बारेमें मुझे क्या करना चाहिए; इसलिए उसे जाननेकी दृष्टि से मैंने वह चर्चा छेड़ी। मुझे ऐसे पत्र भी मिले हैं जो उस मामलेको सुलझानेमें सहायक होंगे। बन्दरोंके बारेमें मैं इतना कह दूँ कि जब कोई और उपाय ही नहीं रहेगा, तभी मैं उनके प्राणहरण तक जाऊँगा। मैं जानता हूँ कि उससे बचनेका प्रयत्न करना मेरा धर्म है और इस चर्चाका उद्देश्य उससे बचना ही है।
कर्मवादको मैं अवश्य मानता हूँ, किन्तु पुरुषार्थको भी मानता हूँ। कर्मका सर्वथा क्षय करके मोक्ष प्राप्त करना परम पुरुषार्थ है। यों तो बीमारकी सेवामें भी