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३८७. पत्र: बनारसीदास चतुर्वेदीको

१० अक्टूबर, १९२८

भाई बनारसीदास,

आपके दो पत्र मेरे पास है।

‘चाकलेट’[१] नाम पुस्तक पर जो पत्र था उसको मैंने ‘यं. इं.’ के लिये नोट लीखकर भेज दीया। पुस्तक तो नहि पढा था। टीका केवल आपके पत्र पर निर्भर थी। मैंने सोचा इस तरह टीका करना उचित नहिं होगा। पुस्तक पढना चाहीये, मैंने पुस्तक आज खतम की। मेरे मन पर जो असर आप पर हुआ नहि हुआ है। मैं पुस्तकका हेतु शुद्ध मानता हुं। इसका असर अच्छा पड़ता है या बूरा मुझे मालम नहि है। लेखकने अमानुषी व्यवहारपर घृणा ही पैदा की है। आपका पत्रकी ‘चेझ’ अब खुल्वा ढुंगा।

महाराज कुंवरसींगजीके[२] बारेमें मैं क्या लीखुं? बहोत सोच रहा हूं। सिर्फ लीखने से कुछ नहि हो सकेगा। शास्त्रीजी प्रयत्न कर रहे हैं। मैं सावधान हुं।

परभुसींगके बारेमें बिहार सरकार कुछ करे तो हो सकता है। अन्यथा क्या हो सकता है? इस विषयमें मैं कुछ हिस्सा लेना नहि चाहता हुं।

आपका,
मोहनदास

श्रीयुत बनारसीदास चतुर्वेदी
९१ अपर सर्कुलर रोड
कलकत्ता

जी॰ एन॰ २५२१ की फोटो-नकलसे।

३८८. ईश्वर है

लोग पत्र लिख-लिखकर अक्सर मुझसे ईश्वरके बारेमें प्रश्न पूछते हैं और इन पृष्ठोंमें उनके उत्तर देनेका आग्रह करते रहते हैं। ‘यंग इंडिया’ में बार-बार ईश्वरकी दुहाई देनेका―जो एक अंग्रेज भाईके लेखे तो मेरा आत्म-प्रचारका चतुराई-भरा तरीका है―मुझे यही दण्ड भोगना पड़ता है। वैसे मैं ऐसे सभी प्रश्नोंके उत्तर इन पृष्ठोंमें नहीं दे सकता, पर निम्नलिखितका उत्तर तो देना ही पड़ेगा:

  1. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र‘ की पुस्तक।
  2. यहाँ स्पष्टतः तात्पर्य कुँवर महाराजसिंहसे है। उन दिनों दक्षिण आफ्रिका भारतके एजेंट जनरल वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्रीके उत्तराधिकारीके रूप में इनके और कूर्मा वी॰ रेड्डीके नामपर विचार किया जा रहा था।