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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
मैंने १२-५-१९२७ के आपके ‘यंग इंडिया’ का पृष्ठ १४९ देखा है। उसमें आपने लिखा है―“इस संसारमें, जहाँ ईश्वर अर्थात् सत्यके सिवा कुछ भी निश्चित नहीं है, निश्चितताका विचार करना ही दोषमय प्रतीत होता है।[१]
‘यंग इंडिया’ पृष्ठ १५२―“परमात्मा बड़ा धैर्यवान और चिर-सहिष्णु है। जालिमको वह अपनी कब्र अपने-आप खोदने देता है। केवल समय-समय पर उसे गम्भीर चेतावनियाँ देता रहता है।”[२]
मेरा विनम्र निवेदन है कि ईश्वरका अस्तित्व कोई इतना सुनिश्चित तथ्य नहीं है। ईश्वरका लक्ष्य तो सत्यका चतुर्दिक प्रसार ही होना चाहिए। वह संसारमें तरह-तरहके बुरे लोगोंको रहने ही क्यों देता है? अपनी बेईमानी और विचार-शून्यताके साथ बुरे लोग दुनिया में सर्वत्र फलते-फूलते रहते हैं। वे अपनी बुराईकी छूत सब जगह फैलाते हैं और इस तरह आगे आनेवाली पीढ़ियोंको विरासतमें अनैतिकता और बेईमानी सौंपते चलते हैं।
ईश्वर यदि सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान है, तो क्या उसे अपनी सर्वव्यापकताके बलपर इस दुष्टताका पूरा ज्ञान नहीं होना चाहिए और क्या उसे अपनी सर्वशक्तिमत्तासे इसका संहार करके सभी प्रकारकी हैवानियतको सर उठाते ही समाप्त नहीं कर देना चाहिए और इस प्रकार संसारमें दुष्ट लोगोंका पनपना असम्भव नहीं कर देना चाहिए?
ईश्वरको इतना अधिक सहिष्णु और धैर्यशील क्यों होना चाहिए? और यदि वह ऐसा है तो उसका प्रभाव ही क्या पड़ सकता है? संसारमें हैवानियत, बेईमानी और आततायीपन तो चल ही रहे हैं।
ईश्वर यदि आततायीसे ही स्वयं उसकी कब्र खुदवा सकता है, तो वह आततायीको पहले ही नष्ट क्यों नहीं कर देता जिससे गरीब लोग उसके अत्याचारके शिकार न बन पायें? अत्याचारीको नष्ट करनेसे पहले उसे अत्याचारका नंगा नाच दिखानेकी छूट ईश्वर क्यों देता है? ऐसा क्यों है कि वह उसे कब्रमें तब भेजता है, जब उसका अत्याचार हजारों लोगोंको बरबाद कर चुका होता है, उनके नैतिक बलको समाप्त कर चुका होता है?
संसारमें आज भी बुराईका उतना ही बोलबाला है जितना हमेशा से रहा है। ऐसे ईश्वरपर कोई आस्था ही क्यों रखे जो अपनी शक्तिके बलपर संसारको बदलकर उसे नेक और धर्म-निष्ठ व्यक्तियोंका संसार नहीं बनाता?
मैं ऐसे बुरे लोगोंको जानता हूँ जो अपनी सारी बुराइयोंके बावजूद स्वस्थ और दीर्घायु रहे हैं। कपटी लोग अपनी बुराइयोंके कारण अल्प वयमें ही क्यों नहीं मर जाते?
  1. देखिए आत्मकथा, भाग ३, अध्याय २३। यह अध्याय यंग इंडियाके उपर्युक्त अंकमें प्रकाशित हुआ था।
  2. देखिए खण्ड ३३, पृ४ ३३४।