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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बारेमें अज्ञाना बने रहने से मैं उसके प्रभावसे मुक्त नहीं हो जाता, उसी प्रकार ईश्वर या उसके नियमको स्वीकार न करनेसे तो मैं उसके प्रभावसे अछूता नहीं रह पाऊँगा। दूसरी ओर नतशिर होकर मूक भावसे ईश्वरीय शक्तिको स्वीकार कर लेने से जीवन-यात्रा उसी प्रकार सुगम-सरल हो जाती है जिस प्रकार कोई व्यक्ति यदि उस सांसारिक सत्ताको, जिसके अधीन वह रहता है, स्वीकार कर ले तो उसकी जिन्दगी आसान हो जाती है।

मुझे एक आभास-सा तो अवश्य होता है कि इस सतत परिवर्तनशील और नाशवान विश्वके पीछे कोई ऐसी चेतन शक्ति है, जो स्वयं अपरिवर्तनशील है, जो कण-कणको एक सूत्रमें बाँधे है, जो सृजन, संहार और नव सृजन करती रहती है। वह सर्वज्ञ शक्ति ही ईश्वर है। और चूँकि अपने मात्र इन्द्रिय-ज्ञानके बलपर मैं जितनी भी वस्तुओंकी प्रतीति कर पाता हूँ, वे सभी नाशवान हैं, अनित्य हैं, इसलिए एक ईश्वर ही अनश्वर और नित्य है।

और यह शक्ति संगलकारी है या अमंगलकारी? मुझे तो वह पूर्णतया मंगलकारी ही लगती है। इसलिए कि मैं देखता हूँ कि मृत्युके वातावरण में जीवन, असत्यके घमासानमें सत्य और अन्धकारकी चपेटमें प्रकाश अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। इसी से मैं निष्कर्ष निकालता हूँ कि ईश्वर जीवन, सत्य और प्रकाश-रूप है। वह प्रेम है। वह परम शिव-तत्त्व है।

मगर यदि ईश्वर बुद्धिको सन्तोष दे भी सकता हो तो वह ईश्वर ईश्वर नहीं है जो केवल बुद्धिको ही सन्तोष दे। ईश्वर तो तभी ईश्वर कहा जा सकता है जब उसका साम्राज्य हृदयपर हो, वह हृदयको बदल सके। उसके बन्देके हरएक, छोटेसे-छोटे काममें भी उसकी झलक मिलनी चाहिए। यह तो तभी हो सकता है जब उसका सच्चा दर्शन मिले। वह दर्शन पाँच इन्द्रियोंके ज्ञानसे अधिक सच्चा होना चाहिए। इन्द्रियोंका ज्ञान हमें चाहे जितना सच्चा क्यों न मालूम हो, किन्तु वह गलत हो सकता है, बहुत बार इन्द्रियाँ हमें धोखा देती हैं। जो ज्ञान इन्द्रियोंके परे होता है, उसमें भूल नहीं हो सकती। यह बाहरी प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं होता, बल्कि अपने भीतर ईश्वरकी सच्ची अनुभूति करनेवालेके आचार-व्यवहार तथा चरित्रमें परिवर्तनसे सिद्ध होता है।

इस प्रकारका साक्ष्य सभी देशों तथा जातियोंके नबी-पैगम्बरों, ऋषि-मुनियोंके अनुभवमें मिलता है जिनकी श्रृंखला कभी टूटती नहीं। इस प्रमाणको अस्वीकार करना अपने अस्तित्वको अस्वीकार करना है।

ऐसा अनुभव अटूट आस्थाके आधारपर ही प्रतिफलित होता है। जो भी व्यक्ति ईश्वरके अस्तित्वका स्वयं अनुभव करके देखना चाहे, वह जीवन्त आस्था के बलपर ही ऐसा कर सकता है। और चूँकि आस्थाको भी किसी बाह्य प्रमाणके आधारपर सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिए सबसे निरापद माँग यही है कि संसारके नैतिक नियमनपर और इसीलिए नैतिक नियमको, सत्य तथा प्रेमके नियमको, सर्वोपरि नियम मानकर उसपर आस्था रखी जाये। और उस आस्थाका मार्ग