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ईश्वर है।

अपनाना उसी व्यक्ति के लिए सर्वाधिक फलप्रद रहेगा, जो सत्य और प्रेमके विरुद्ध पड़नेवाली हर चीजका सर्वथा त्याग करनेका दृढ़ संकल्प कर लेगा।

परन्तु पत्र-लेखकने जो तर्क प्रस्तुत किया है, उसका उत्तर ऊपर कही गई बातोंमें नहीं मिलता। मैं स्वीकार करता हूँ कि उनको बुद्धिके धरातलपर पूर्णतः सन्तुष्ट करने योग्य कोई भी तर्क मेरे पास नहीं है। आस्था तर्कसे ऊपरकी चीज है। बस, मैं उनको यही परामर्श दे सकता हूँ कि वे असम्भवको करनेका प्रयत्न न करें। बुराईके अस्तित्वका मैं अन्य कोई युक्तिसंगत कारण नहीं सोच पाता। ऐसा करनेकी इच्छा करना अपने- आपको ईश्वरका समकक्षी मान लेना है। इसलिए मैं पूरी विनम्रताके साथ बुराईको बुराईके रूप में स्वीकार करके ही सन्तुष्ट हूँ। और मैं ईश्वरको अत्यन्त सहिष्णु और धैर्यशील भी इसीलिए कहता हूँ कि वह बुराईको संसारमें रहने देता है। मैं जानता हूँ कि ईश्वरमें बुराईका तत्त्व एकदम नहीं है, वह सर्वथा शुद्ध है, और इसके बावजूद यदि बुराई है, तो वह उससे अछूता है।

मैं यह भी जानता हूँ कि यदि मैं अपने प्राणोंकी बाजी लगाकर बुराईके विरुद्ध संघर्ष नहीं करूँगा तो मैं ईश्वरको कभी भी नहीं जान पाऊँगा। मेरा अपना तुच्छ और सीमित अनुभव मेरे इस विश्वासको पुष्ट बनाता है। मैं शुद्ध-पवित्र बननेका जितना ही अधिक प्रयत्न करता हूँ, अपने-आपको ईश्वरके उतना ही निकट महसूस करता हूँ। आज तो मुझमें नाम-मात्रकी ही श्रद्धा है, फिर भी मैं अपने-आपको उसके कुछ निकट महसूस करता हूँ। पर जब मेरी श्रद्धा हिमालय-जैसी अटल और उसकी चोटियोंके हिम-जैसी धवल और उज्ज्वल बन जायेगी तब मैं कितनी अधिक निकटता उससे महसूस करने लगूंगा? तब पत्र लेखकसे मेरा आग्रह है कि तबतक वे न्यूमैनकी इस प्रार्थनाका पाठ करें। न्यूमैनने अपने अनुभवके आधार-पर यह गीत रचा था:

इस घिरते अंधकारमें, हे प्रेममय ज्योति
मेरा मार्ग आलोकित कर;
मैं घरसे बहुत दूर पड़ा हूँ और रात अँधेरी है,
हे ज्योति, मेरा मार्ग आलोकित कर;
मेरे लड़खड़ाते पैरोंको तू बल दे,
बहुत दूर-दूर तक मेरा पथ दीप्त हो उठे―
ऐसा मैं नहीं कहता, मैं तो चाहता हूँ बस एक डग-भर,
एक डग-भरका आलोकित पथ पर्याप्त होगा मेरे लिए।
[अंग्रेजी से]
यंग इंडिया, ११-१०-१९२८