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४००. पत्र: हे॰ सॉ॰ लि॰ पोलकको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१२ अक्टूबर, १९२८

प्रिय भाई,

आपका फटकार-भरा पत्र मिला। फटकार उचित ही है। परन्तु उसमें सोलहों आने गणेशनकी भूल ही थी। भेजनेका काम आश्रमने नहीं किया था। गणेशन उसके प्रकाशक हैं और वे काफी सावधान आदमी हैं। पर पता नहीं कैसे, वे आपको कोई प्रति[१] भेजना भूल गये। एन्ड्रयूजने तार भेजा था, इसलिए उनको एक या एकाधिक प्रतियाँ मिल गईं।

गब्रिएल आइजकके नामका उल्लेख छूट जानेपर भी आपने झिड़की दी है। मुझे उनके नामका उल्लेख न होने की जानकारी नहीं है। मैंने अभी-अभी अंग्रेजी अनुवादकी सांकेतिका देखी है। उसमें उनका नाम नहीं मिला। परन्तु इसे तो इस बातका यथेष्ट प्रमाण नहीं माना जा सकता कि उनका नाम उस पुस्तकमें[१] कहीं है ही नहीं। और अगर नहीं भी हो, तो उसे जान-बूझकर तो नहीं ही छोड़ा गया है। मैंने आश्रमके लोगोंसे बहुधा उनके और उनके त्यागके बारेमें बातें की हैं। उनका, उनकी नेकदिली और उनकी सादगीका मुझे बहुधा स्मरण हो आता है। फिर भी अगर मैं उल्लेख करना भूल गया हूँ तो कह नहीं सकता कि यह कैसे हुआ। मैं कह सकता हूँ कि अन्य कुछ प्रिय जनोंके नाम भी इसी प्रकार गफलतसे छूट गये हैं।

जेलोंके उल्लेखमें जो गड़बड़ी है, उसकी मुझे चिन्ता नहीं। किसी आदमीका जीवन यदि घटनाओंसे इतना भरा-पूरा हो, और वह यदि दस वर्षके बाद उन सभी घटनाओंको याद करके लिखना शुरू करे तो इस तरहकी अशुद्धियाँ स्वाभाविक ही हैं। क्या इतना ही काफी नहीं कि सार रूपमें वह इतिहास बिलकुल सच्चा है और उसमें किसी प्रकारका कोई आग्रह या पक्षपात नहीं है? पुस्तकके पाठकोंने उसके बारेमें यही राय दी है। और मैं दावेके साथ कहता हूँ कि आप भी उसके बारेमें यही राय देंगे।

अबतक शायद आपको मालूम हो गया होगा कि मगनलालके स्मारकका रूप क्या होगा। पर यदि आपको ‘यंग इंडिया’ का[२] वह अंक न मिला हो तो मैं आपको बतलाये देता हूँ कि मगनलालके खादी-प्रेम और इस सम्बन्धमें उनके तकनीकी ज्ञानके योग्य ही विशेष तौर पर बनाई जानेवाली एक इमारतमें एक खादी-संग्रहालय स्मारकके रूप में प्रतिष्ठित किया जायेगा। बारडोलीका आन्दोलन बीचमें आ जानेके कारण

  1. १.० १.१ दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास; देखिए खण्ड २९।,
  2. १७ मई, १९२८ का अंक; देखिए खण्ड ३६, पृष्ठ ३४२-४३।