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४०३. पत्र: एस्थर मेननको

सत्याग्रहाश्रम, साबरमती
१२ अक्टूबर, १९२८

रानी बिटिया,

तुम्हारा पत्र एक लम्बे अरसेके बाद मिला। इसलिए दोहरी खुशी हुई। आशा है, मेरा पत्र मिलनेके समय तुम्हारा स्वास्थ्य पहलेसे अच्छा होगा और यदि ऑपरेशन हुआ भी होगा तो पूर्णतया सफल रहा होगा और उसने कोई बुरा प्रभाव नहीं छोड़ा होगा।

आजकल आश्रममें अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। समय आनेपर ‘यंग इंडिया’ के पृष्ठों में उनका विस्तृत विवरण तुमको देखनेको मिलेगा। वर्षके इन दिनोंमें यहाँ मलेरिया जोर पकड़ता है। इस वर्ष भी है। बाकी सब ठीक चल रहा है।

मेननको पत्र लिखो तो मेरी याद दिलाना।

श्रीमती एस्थर मेनन

अंग्रेजी (एस॰ एन॰ १४४११) की फोटो-नकलसे।

 

४०४. हानिकर प्रथा

एक काठियावाड़ी लिखते हैं:[१]

हिन्दू समाजमें वास्तव में यह कठिनाई है और वह केवल काठियावाड़में ही नहीं है। जिस युवा पतिको अपने कर्त्तव्यका ज्ञान हो गया है, यदि उसे इस स्थितिमें से निकलना हो तो अपना मार्ग स्वयं ही खोजना चाहिए। उसे चाहिए कि वह अपने माता-पिताको नम्रतासे समझाये और उनके सम्मुख विवाहका सच्चा अर्थ स्पष्ट करे। यदि उसे अपने माता-पिताको समझानेमें कुछ कठिनाई हो तो वह जबतक स्वावलम्बी न हो सके तबतक दृढतापूर्वक अपनी स्त्रीके साथ रहनेसे इनकार कर दे। जहाँ चाह होती है वहाँ राह भी निकल आती है। मनुष्यकी प्रतिष्ठा कठिनाइयोंमें से निकलने में ही हो सकती है और वह उनमें से निकलकर ही सच्चा मनुष्य बन सकता है।

[गुजराती से]
नवजीवत, १४-१०-१९२८
 
  1. अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। लेखककी शिकायत थी कि जब परिवारके साथ रहते हुए पति-पत्नी एक-दूसरेसे बाततक नहीं कर पाते तब वह विवाहको मित्रताका रूप कैसे दे सकते हैं।