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एक समस्या

हो तो वह अन्तर्यामी होने के कारण क्यों नहीं प्रार्थना करनेसे पहले ही रोगको समझकर उसका निवारण करता? इस तरहकी दलीलोंके प्रपंचमें न पड़ते हुए, ईश्वरकी गतिको गहन समझकर और दूसरे जो उसकी शरण लेकर तर गये हैं, उनके दृष्टान्तको सामने रखते हुए श्रद्धापूर्वक सच्चे हृदयसे याचना करनी चाहिए।

जितनी जरूरत प्रार्थनाकी है, उतनी ही पुरुषार्थकी भी है। बिना प्रयत्नके प्रार्थना आडम्बर बन जाती है। प्रार्थना शुष्क तो है ही। फिर यदि वह हार्दिक न हो तो उसका केवल यान्त्रिक उच्चारण निरर्थक है। प्रयत्न करेनेवाले में तुरन्त आत्मविश्वास उत्पन्न हो जाता है। प्रयत्नमें सतत शारीरिक उद्यम आवश्यक है। उद्यम चाहे कितना ही हलका क्यों न हो, उसकी कोई परवाह नहीं। जो-कुछ पढ़ा जाये, वह पवित्रताका पोषक ही हो। एकान्तका सेवन बिलकुल ही नहीं करना चाहिए। पत्नीका सहवास छोड़ना अनिवार्य है। इस सबको करते रहें और रोगको भूल ही जायें। यदि सतत उद्यम करेंगे तो रोगकी याद ही नहीं आयेगी।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १४-१०-१९२८
 

४०७. एक समस्या

बछड़ा-प्रकरण[१] जल्दी ही समाप्त होता नहीं दीखता। अहिंसाके नामपर हिंसा करनेवाले भाई अभीतक डाकखानेकी आमदनी बढ़ा रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि मैं साठ वर्षका हो गया हूँ और इसलिए मेरी बुद्धि नष्ट हो गई है। सासून अस्पताल[२] में मेरे रोगको असाध्य मानकर डाक्टरों या मित्रोंने मुझे जहरकी पिचकारी दे दी होती, तो वह गरीब बछड़ा जहरकी पिचकारीसे बच जाता और बन्दरोंके ऊपर मैं मृत्युदण्डकी जो तलवार उठाये हुए हूँ, उसका भय भी हनुमानके वंशजोंको न रहता। इनके अलावा ऐसे ही अहिंसक उद्गारोंवाले अन्य पत्र भी आया करते हैं। और इस तरहके पत्र जितने अधिक आते हैं, मुझे उतना ही अधिक ऐसा लगता है कि इस विषयकी ‘नवजीवन’ में चर्चा करके मैंने ठीक ही किया था। ये पत्रलेखकगण समझते ही नहीं हैं कि अहिंसा-धर्मको जानने और माननेका दावा करते हुए भी उनका ऐसे पत्र लिखना हिंसा करना है। किन्तु ऐसे पत्रोंमें अपवाद-रूप दो-चार दूसरे प्रकारके पत्र भी आये हैं। मैं उनमें से चुनकर एक यहाँ दे रहा हूँ। इस पत्रके लेखक कहते हैं:

बछड़ा-प्रकरणके विषयमें आपकी मीमांसासे कितने ही संशय दूर हुए। आपने अहिंसाकी मर्यादाके ऊपर भली भाँति प्रकाश डाला है, किन्तु उसके साथ ही आपने एक नई उलझन भी पैदा कर दी है। वह यह है: मान लीजिए, कोई व्यक्ति या व्यक्तियोंका समूह किसी बड़े जनसमुदायको कष्ट पहुँचा रहा है और दूसरी तरहसे उसका निवारण न हो सकनेकी अवस्थामें
  1. देखिए “पावककी ज्वाला”, ३०-९-१९२८।
  2. जहाँ जनवरी, १९२४ में उनका आन्त्रपुच्छका ऑपरेशन हुआ था; देखिए खण्ड २३, पृष्ठ २०२-४।