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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

यदि पीड़ित जनसमुदाय उसका नाश करे तो यह अनिवार्य समझकर अहिंसामें गिना जायेगा या नहीं? बछड़ा-प्रकरणमें आपने भावनाको प्राधान्य दिया है, तो इस स्थलमें भी पीड़ा देनेवाले पापीका वध करनेमें भावनाके उच्च होनेके कारण क्या यह वध अहिंसक नहीं गिना जायेगा? फसलका नाश करनेवाले जीवोंके नाशको आपने हिंसा नहीं गिना है। उसी भाँति क्या आप मानव-समाजका नाश करनेवाले आदमीके नाशको अहिंसा न मानेंगे?

विवेकी पाठकोंने तो यह देख ही लिया होगा कि इस पत्र में मेरे लेखका अनर्थ लक्षित होता है। अहिंसाकी जो व्याख्या मैंने दी है, उसमें उपर्युक्त ढंगसे मनुष्योंके वधका समावेश हो ही नहीं सकता। किसान जो अनिवार्य जीवनाश करता है, उसे भी मैंने कभी अहिंसा में नहीं गिनाया है। यह वध अनिवार्य होनेके कारण क्षम्य भले ही माना जाये, किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है। किसान द्वारा की गई हिंसा में या लेखकने जो दृष्टान्त दिया है, उसमें निहित हिंसामें समाजका स्वार्थ तो छिपा हुआ है ही। अहिंसा में स्वार्थको स्थान नहीं है। बछड़ेके प्राण-हरणमें स्वार्थका नहीं, केवल बछडेके भलेका ही विचार था। उसमें खेती या किसी अन्यकी रक्षाका सवाल नहीं था और न उसमें मेरी या किसी दूसरेकी सुविधाका सवाल था। दुःखसे पीड़ित और जिसकी दूसरी कोई सेवा असम्भव हो गई थी, ऐसे बछड़ेके प्रति जो कर्त्तव्य था, सवाल उसीका था। प्रस्तुत लेखकके प्रश्नकी तुलना बन्दरोंके प्रश्नसे जरूर की जा सकती है। मगर इन दोनों में बहुत भेद है। बन्दरका हृदय-परिवर्तन करनेका कोई सामाजिक उपाय हमारे पास नहीं है, इसलिए उसका प्राणहरण शायद क्षम्य गिना जाये, किन्तु पापीका, कष्ट देनेवाले मनुष्यका हृदय परिवर्तन हमेशा शक्य है। ऐसे परिवर्तनके उपायोंकी योजना भी समाजने की है। इसलिए स्वार्थी मनुष्यके वधको अहिंसाके क्षेत्रमें स्थान कभी नहीं मिल सकता। मनुष्यका वध करना अनिवार्य हो सकता है; यह बात मुझे सूझ ही नहीं सकती। यह याद रखनेकी जरूरत है कि बछड़ेकी स्थिति में पड़े हुए मनुष्य के बारेमें मैंने जो कल्पना की है, उसका यहाँ कोई सवाल नहीं।

अब रही भावनाकी बात। यह सही है कि मैंने भावनाको प्राधान्य दिया है, किन्तु अकेली भावना से अहिंसा सिद्ध नहीं हो सकती। यह सच है कि अहिंसाकी परीक्षा अन्ततः भावनासे ही होती है, किन्तु कोरी भावनासे अहिंसाको नहीं आँका जा सकता, यह भी उतना ही सच है। भावनाका माप भी कार्यसे ही सिद्ध करना पड़ता है। जहाँ स्वार्थवश होकर हिंसा की गई है, वहाँ भावना चाहे कितनी ही ऊँची क्यों न हो, तो भी स्वार्थमय हिंसा तो हिंसा ही रहेगी। इससे उलट, जो आदमी मनमें वैरभाव रखता है किन्तु लाचारीसे उसे काम में नहीं ला सकता, उसे वैरीके प्रति अहिंसक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसकी भावनामें वैर छिपा हुआ है। इसलिए अहिंसाको मापने में भावना और कार्य दोनोंकी परीक्षा की जरूरत रहती है।

[गुजराती से]
नवजीवन, १४-१०-१९२८