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४०८. पत्र: प्रभाशंकर पट्टणीको

आ[श्विन] सु[दी] १ [१४ अक्टूबर, १९२८][१]

सुज्ञ भाईश्री,

आपका पत्र मिला।

बीमारी के कारण खाटपर पड़े हुए व्यक्ति द्वारा चरखा चलानेका प्रश्न ही नहीं उठता। आपकी प्रतिज्ञामें भी बीमारीका अपवाद तो था। हाँ, यदि आप आलस्यवश या कामके बोझके बहाने चरखा न चलायें तो मेरी दो कड़वी बातें अवश्य सुननी पड़ेंगी। इतना ही नहीं, बल्कि आपके प्रति यदि मेरा इतना प्रेम हो कि मैं सत्याग्रह कर सकूँ तो शायद आपके खिलाफ सत्याग्रह करनेकी नौबत भी आ सकती है। आप अपनी बीमारी में भी चरखा चलाते रहें, ऐसी अनुचित माँग मैं कैसे कर सकता हूँ! और यदि श्रीमती पट्टणी अब भी निष्ठापूर्वक चरखा चलाती हों तो यह मेरे लिए आपके कातने-जैसा ही है। किन्तु उनकी सच्ची निष्ठाके बारेमें मुझे सन्देह है। मैं आपके प्रमाणपत्रको पक्षपातपूर्ण मानता हूँ, इसलिए मैं अपनी दृष्टिसे उनकी निष्ठाकी परीक्षा लूँगा। फिर आप ही लिखते हैं कि वे सदा ‘पाणकोरुं’ (गजी) नहीं पहनतीं। किन्तु जो निष्ठावान है, उसके लिए क्या कोई अपवाद होता है? ‘पाणकोरुं’ तो हमारे घरोंमें प्रचलित शब्द है। वे ‘पाणकोरूं’ जितना महीन चाहें उतना महीन पहनें। मैं यह नहीं मानता कि 'पाणकोरुं' का अर्थ केवल मोटा कपड़ा ही होता है। हमारी बहन-बेटियाँ जैसा भी कातकर दे सकें उसी कपड़ेको ‘पाणकोरुं’ कहा जाता है। महीन सूत कतवाना तो आपके हाथकी बात है। ऐसा लगता है जैसे मैंने यह पत्र रमाबहनके लिए लिखा है।

अब आपसे जो मैं आशा करता हूँ उसमें कुछ बातें ये हैं। अपनी रियासतके उत्पादनोंपर होनेवाले खर्चके लिए आपको अपने बजट में उसी प्रकार काफी गुंजाइश रखनी चाहिए जैसे कि आप करोंकी वसूलीपर होनेवाले खर्चके लिए रखते हैं। आज-कल तो यह खर्च मुझे उठाना पड़ रहा है। किन्तु मुझमें अब उस खर्चको उठानेकी शक्ति कहाँ है?

आपकी रियासतमें मद्य-निषेध कानूनका जो परिणाम निकला हो उसकी रिपोर्ट तैयार करवाकर जनताकी अथवा मेरी जानकारी के लिए भिजवायें।

सरकारी डेरी-विशेषज्ञके जो लेख ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित हुए हैं उनके आधारपर आप एक आदर्श डेरी रियासतकी ओरसे चलायें। आखिरकार इसमें नुकसान तो होगा ही नहीं।

 
  1. यंग इंडियाके २७-९-१९२८ तथा ११-१०-१९२८ के अंकोंमें प्रकाशित डेरी परिचालन सम्बन्धी लेखोंके आधारपर इस पत्रका वर्ष निर्धारित किया गया है।