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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


की जो काफी लोकप्रिय थी; परन्तु उस समय यह सरकारसे सम्बद्ध थी। जब उन्होंने असहयोगके तत्त्वको ठीकसे समझ लिया तब सरकारसे उसका सम्बन्ध तोड़ दिया। उन्होंने वकालत भी छोड़ दी और एकदम गरीबीका जीवन अपना लिया। विधान सभा छोड़ दी। इन दोनोंको छोड़ना तो उनके लिए कठिन नहीं था, किन्तु मित्रोंकी चेतावनीकी परवाह किये बिना अपनी अत्यन्त प्रिय शालाका –– जिसका आदर्श वाक्य सत्यनिष्ठा था –– सरकारसे सम्बन्ध तोड़कर उसकी हस्तीको ही जोखिममें डाल देना उनके लिए बहुत बड़ा त्याग था। फिर उन्हें कभी अपने इस कामके लिए पश्चात्ताप हुआ हो, इसका मुझे पता नहीं है। एक बार जब शालासे लगभग सभी विद्यार्थी चले गये, तब मित्रोंके कहनेपर उनके मनमें थोड़ी निर्बलता आ गई थी और उन्होंने सरकार से पुनः सम्बन्ध जोड़ने के लिए अर्जी दी। किन्तु जब सरकारने अशोभनीय शर्तें रखीं तब उन्होंने अपनी अर्जी देनेकी निर्बलता पर पश्चात्ताप प्रगट किया। सरकारने शर्तें रखकर अपनी अयोग्यता सिद्ध की और इस प्रकार गोपबन्धु बाबूको उस अनुचित सम्बन्धसे बचा लिया। इसके लिए उन्होंने ईश्वरका आभार माना। कई बार सरल और शुद्ध हृदयके लोगोंकी निर्बलतामें भी उनकी सबलता नजर आती है। यही बात गोपबन्धु बाबूकी निर्बलताके विषय में लागू होती है। इस विषयमें जब उन्होंने मुझसे बात की तो मुझे एक तरफ उनकी आँखों और उनके कथनमें अपनी प्रिय शालाके लिए प्रेम दिखाई दिया और दूसरी ओर अपनी निर्बलताकी अतिशय सरलतासे स्वीकृति। यह मिश्रण गोपबन्धु बाबूको शोभान्वित ही कर रहा था। और जब पिछले वर्ष उत्कलके भ्रमणके दौरान वे मुझे साखीगोपाल ले गये, तब वहाँ एक सुन्दर कुंजमें स्थित शालाकी बड़ी-बड़ी इमारतोंके खण्डहर देखकर मुझे दुःख हुआ।

किन्तु गोपबन्धु बाबूको किसी प्रकारकी ग्लानि हुई हो, मुझे ऐसा अनुभव नहीं हुआ। उन्होंने पिछले चार वर्षों में यह जान लिया था कि उत्कलकी गरीबी दूर करनेमें खादीका कितना महत्त्व है। इसलिए वे खादीका काम कर रहे थे और मेरे साथ इस विषय में सलाह-मशविरा कर रहे थे कि इस कामको कैसे बढ़ाया जाये। गोपबन्धु बाबू लालाजी के सेवा-मण्डलसे सम्बन्धित थे। वे उस मण्डलके उपाध्यक्ष थे। हम यही आशा करते हैं कि उनका काम उत्कलके स्वयंसेवक उठा लेंगे। साधु पुरुष मरकर भी जीते हैं। असाधु जीते हुए भी मरेके समान हैं। गोपबन्धु बाबू-जैसे साधु पुरुषके शारीरिक क्षयसे हम स्वार्थवश दुःख करते हैं, पर शुद्ध दृष्टि से देखें तो ईश्वर निर्दयी नहीं, बल्कि न्यायी है। ऐसा माननेवाले के लिए ये वियोग दुःखदायी नहीं होने चाहिए। उनके जीवित रहते हुए हम उनके पवित्र जीवनका अनुकरण नहीं कर पाते; किन्तु उनके गुणोंका सच्चा स्मरण करके हमें अपने में ऐसा करनेकी शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए। अनेक ऐसे दृष्टान्त है, जहाँ ऐसा हुआ है। इसलिए मोह-रहित होकर हम मृत्युका शोक और डर छोड़ दें और आत्माके अमरत्वको सिद्ध करें।

[गुजराती से]

नवजीवन, १-७-१९२८